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षड्दर्शन समुच्चय भाग -१, परिशिष्ट-१, वेदांतदर्शन
इस व्यष्टि अज्ञान से युक्त चैतन्य प्रत्यगात्मा कहा जाता हैं । वह ब्रह्म के आभासवाला और व्यष्टि अज्ञान से ढका हुआ होता हैं । तदुपरांत अज्ञान के गुणो के साथ तादात्म्य (एकता) पाकर पराभव प्राप्त करता हैं, इसलिए "जीवात्मा" कहा जाता हैं। अल्पज्ञता, अनीश्वरता और संसारित्व आदि धर्मोवाला हैं । व्यष्टि अज्ञान उसके अहंकार का कारण होने से वही उसका शरीर हैं। उसमें अभिमान वाले (अर्थात् शरीर में ही आत्मत्व के अभिमान वाले) उस आत्मा को विद्वान 'प्राज्ञ' कहते हैं।
वेदांतसार ग्रंथ में अज्ञान को पांच विशेषण देकर समजाया गया हैं, वह इस अनुसार हैं -
अज्ञानं तु सदसद्भ्यामनिर्वचनीयं त्रिगुणात्मकं ज्ञानविरोधि भावरुषं यत्किञ्चिदिति वदन्त्यहमज्ञ इत्याद्यनुभवात् “देवात्मशक्तिं स्वगुणैनिगूढाम्" इत्यादि श्रुतेश्च । (अ. २/३४॥) इयमज्ञानं समष्टिव्यष्ट्यभिप्रायेणैकमनेकमिति च व्यवह्रियते ।
अज्ञान सत् और असत् से व्यक्त न किया जा सके ऐसा (अनिर्वचनीय) हैं, त्रिगुणात्मक हैं, ज्ञानविरोधी हैं, भावरुप हैं, और "कुछ" है, ऐसा कहा जाता हैं । क्योंकि, "मैं अज्ञानी हूं" इत्यादि अनुभव से अज्ञान की सत्ता सिद्ध होती है और “देवात्मशक्तिं स्वगुणैर्निगूढाम्" इत्यादि श्रुति से भी उसकी सत्ता सिद्ध होती हैं। यह अज्ञान समष्टि के अभिप्राय से एक और व्यष्टि के अभिप्राय से अनेक के रुप में व्यवहार किया जाता हैं ।
पांच विशेषण द्वारा अज्ञान के स्वरुप की स्पष्टता की हैं। (१) सदसद्भ्यामनिर्वचनीय - अज्ञान "सत्" और "असत्" शब्दों से अनिर्वचनीय हैं अर्थात् वह "सत्" भी नहीं कहा जा सकता और असत् भी नहीं कह सकते । जो त्रिकालाबाधित हो, उसको "सत्" कहा जाता हैं। अज्ञान तो ज्ञान से नष्ट हो जाता है, इसलिए वह "सत्" नहीं हैं। जिसकी कभी भी प्रतीति न हो, उसको "असत्" कहा जाता हैं । जैसे कि, "शशशृंग" और "आकाशकुसुम" की कभी भी प्रतीति नहीं होती हैं, तो वह असत् हैं, वैसे अज्ञान के बारे में नहीं कहा जा सकता, क्योंकि अज्ञान की तो प्रतीति होती ही हैं । अज्ञान के कारण ही जगत दिखता हैं । अर्थात् अज्ञान के कार्यरुप जगत दिखता हैं, इसलिए अज्ञान "असत्" नहीं हैं। (२) त्रिगुणात्मक :- अज्ञान सत्त्व, रजस्, तमस्, ये तीन गुण से युक्त हैं। इसलिए ही उससे सुख-दुःख-मोहात्मक विश्व की सृष्टि उत्पन्न हुई हैं। (३) ज्ञानविरोधि :ज्ञान से जिसका नाश होता हैं, ऐसा अज्ञान हैं । (४) भावरुप :- अज्ञान ज्ञान के अभाव स्वरुप नहीं हैं अर्थात् अभावत्मक नहीं हैं। परन्त वह स्वयं एक भावरुप सत्ता हैं। (५) यत्किञ्चित :- अज्ञान "सत" भी नहीं हैं. "असत्" भी नहीं हैं, उसका वर्णन हो सके ऐसा नहीं हैं। इसलिए, उसके लिए "कुछ' शब्द का उपयोग किया हैं।
वेदान्तीयों ने पारमार्थिक सत्ता की तरह व्यावहारिक और भ्रमात्मक प्रातिभासिक सत्ता का भी स्वीकार किया हैं। व्यावहारिक और प्रातिभासिक सत्ता अज्ञानजन्य हैं । ज्ञान प्राप्त होने से वह नष्ट होती हैं। नष्ट होती होने से वह सत्' नहीं हैं और अनुभव में आती होने से "असत्" भी नहीं हैं। इसलिए उसको जन्म देनेवाले "अज्ञान" के लिए "कुछ" शब्द का उपयोग किया हैं।
यहाँ उल्लेखनीय हैं कि, "अज्ञान को ब्रह्म की शक्ति कही होने पर भी ब्रह्म का वह स्वभाव नहीं हैं। क्योंकि सत्-चित्-आनंद युक्त ब्रह्म से वह विलक्षण स्वभाववाला हैं। इसलिए ब्रह्म के साथ अज्ञान किस तरह से जुडता हैं, वह समजाना भी कठिन होने से उस संबंध को भी अनिर्वचनीय कहा जाता हैं। अज्ञान (अविद्या) की दो शक्तियाँ हैं । उसके नाम और स्वरुप बताते हुए सर्ववेदांत-सिद्धांत-सारसंग्रह ग्रंथमें कहा हैं कि, आत्मोपाधेरविद्याया अस्ति शक्तिद्वयं महत् । विक्षेप आवृतिश्चेति याभ्यां संसार आत्मनः ॥४८८॥ अविद्या ही
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