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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग -१, परिशिष्ट-१, वेदांतदर्शन ३४१ आत्मा को उपाधिरुप हैं । उस अविद्या की दो महान शक्तिया हैं । (१) विक्षेपशक्ति और (२) आवरण शक्ति । उन दोनों द्वारा आत्मा का संसार (चलता) हैं ।(आवरण शक्ति का स्वरुप बताते हुए आगे बताते हैं कि-) आवृतिस्तमसः शक्तिस्तद्ध्यावरणकारणम् । मूलाविद्येति सा प्रोक्ता यया संमोहितं जगत् ॥४८९॥ "आवरण" यह तमोगुण की शक्ति हैं। वह आवरण का कारण हैं । (अर्थात् वह आत्मा को ढक देने का कार्य करता हैं।) उसको ही मूल अविद्या कहा जाता हैं जिसके द्वारा जगत मोहित हुआ हैं, (कहने का आशय यह हैं कि, जैसे एक छोटा बादल योजनो में फैले हुए सूर्यमंडल को ढक देता हैं, वैसे सीमित अज्ञान असीमित (असीम) आत्मा को देख सके वैसी बुद्धि को ढक देता हैं ।) उसी ग्रंथ में आगे बताया हैं कि- विवेकवानप्यतियौक्तिकोऽपि श्रुतात्मतत्त्वोऽपि च पंडितोऽपि । शक्त्या यथा संवृतबोधदृष्टिरात्मानमात्मस्थमिमं न वेद ॥४९०॥ मनुष्य विवेकवाला हो, अत्यंत युक्तिकुशल हो, आत्मतत्त्व को सुन भी चुका हो ओर पंडित हो, तो भी आवरण शक्ति से उसकी ज्ञानदृष्टि ऐसी ढक जाती हैं कि, जिसके योग से अपने हृदय में रहे हुए आत्मा को भी वह जान नहीं सकता हैं। विक्षेपशक्ति का स्वरुप बताते हुए कहा हैं कि - विक्षेपनाम्नी रजसस्तु शक्तिः प्रवृत्तिहेतुः पुरुषस्य नित्यम् । स्थूलादिलिंगान्तमशेषमेतद्यया सदात्मन्यसदेव सूयते ॥४९१॥ - "विक्षेप" यह रजोगुण की शक्ति हैं, वही पुरुष को हमेशां प्रवृत्ति करने में कारणरुप बनती हैं। यह विक्षेप शक्ति ही स्थूल शरीर से लेकर लिंग शरीर तक के केवल असत् ऐसे सर्व पदार्थो को सत् (सत्य) स्वरुप से आत्मा में उत्पन्न करती हैं अर्थात् विक्षेप शक्ति मूल वस्तु के स्थान पे नयी वस्तु बताती हैं। अधिक स्पष्टता करते हुए आगे बताया गया है कि - निद्रा यथा पुरुषमप्रमतं समावृणोतीयमपि प्रतीचम् । तयावृणोत्यावृतिशक्तिरंतर्विक्षेपशक्तिं परिज़ुभयन्ती ॥४९२॥ शक्त्या महत्यावरणाभिधानया समावृते सत्यमलस्वरुपे । पुमाननात्मन्यहमेष एवेत्यात्मत्वबुद्धि विदधाति मोहात् ॥४९३॥ यथा प्रसुप्तिप्रतिभासदेहे स्वात्मत्वधीरेष तथा ह्यनात्मनः । जन्माव्ययक्षुद्भयतृट्छुमादीनारोपयत्यात्मनि तस्य धर्मान् ॥४९४॥ विक्षेपशक्त्या परिचोद्यमानः करोति कर्माण्युभयात्मकानि । भुञ्जान एतत्फलमप्युपात्तं परिभ्रमत्येव भवांबुराशौ ॥४९५॥ ____ भावार्थ :- जैसे प्रमादरहित पुरुष को निद्रा ढक देती हैं, वैसे यह शक्ति भी प्रत्यगात्मा को ढक देती हैं। वैसे ही "आवरण" शक्ति जब अंदर फैल जाती हैं, तब विक्षेपशक्ति को ढक देती हैं। "अवरण" नामकी वह महान शक्ति हैं, उसके कारण मनुष्य का निर्मल स्वरुप ढक जाता हैं । अर्थात् मोह के कारण वह अनात्म पदार्थो के उपर "यही मैं हूँ" ऐसी आत्मबुद्धि करता हैं । जैसे स्वप्न में दिखाई देते शरीर में "यह मैं हूँ" ऐसी अपने आत्मत्व की बुद्धि करता हैं, वैसे (जाग्रत अवस्था) में भी जन्म, मृत्यु, भूख, प्यास, भय, श्रम इत्यादि अनात्मा के धर्मो का आत्मा में आरोपित करती हैं। मनुष्य विक्षेपशक्ति से प्रेरणा प्राप्त करता हैं । तब शुभ-अशुभ दोनों प्रकार के कर्म करता हैं और उसके द्वारा ग्रहण किये हुए कर्मो के फलो को भुगता करता हैं, इस तरह से संसार समुद्र में भटका ही करता हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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