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षड्दर्शन समुच्चय भाग -१, परिशिष्ट-१, वेदांतदर्शन
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-वह अज्ञान ही प्रकृति, शक्ति अथवा अविद्या कहा जाता हैं। सीप में मालूम होते रजत (चांदी) की तरह वह सत् भी नहीं है अथवा असत् भी नहीं हैं।
सतो भिन्नमभिन्नं वा न दीपस्य प्रभा यथा । न सावयवमन्यद्वा बीजस्यांकुरवत्वचित् ॥३०६॥
जैसे दीपक की प्रभा (कांति) दीपक से भिन्न (अलग) अथवा अभिन्न नहीं हैं, वैसे यह अज्ञान ब्रह्म से भिन्न नहीं हैं या अभिन्न भी नहीं हैं। बीज के अंकुर की भांति वह कहीं भी अवयववाला या अवयवरहित नहीं हैं।
अज्ञान के दो प्रकार बताते हुए आगे बताते हैं कि,
अत एतदनिर्वाच्यमित्येव कवयो विदुः । समष्टिव्यष्टिरुपेण द्विधाज्ञानं निगद्यते ॥३०७॥ इसलिए ही इस अज्ञान को विद्वान अनिर्वाच्य (अमुक स्वरुप में कहने के लिए असंभव) कहते हैं । वह अज्ञान समष्टिरुप से तथा व्यष्टिरुप से दो प्रकार का कहा जाता हैं।
• समष्टि अज्ञान : माया - समष्टि अज्ञान का स्वरुप बताते हुए आगे बताया हैं कि, - नानात्वेन प्रतीतानामज्ञानानामभेदतः । एकत्वेन समष्टिः स्याद् भूरुहाणां वनं यथा ॥३०८॥
जैसे भिन्न भिन्न वृक्षो का अभेददृष्टि से एकत्व ग्रहण करने से (गिनने से) "वन" कहा जाता है, वैसे भिन्न भिन्न प्रतीत होते अज्ञानों का अभेद दृष्टि से एकत्व गिनने से “समष्टि अज्ञान" कहा जाता हैं।
इत्यं समष्टिरुत्कृष्टा सत्त्वांशोत्कर्षतः पुरा । मायेति कथ्यते तज्ज्ञैः शुद्धसत्त्वैकलक्षणा ॥३०९॥
- यह समष्टि अज्ञान उत्कृष्ट है। उसमें प्रथम सत्त्वगुण के अंशो का उत्कर्ष होता हैं। और इसलिए उसका स्वरुप जाननेवाले उसको “माया" कहते हैं, "शुद्धसत्त्वगुण" यही उसका लक्षण हैं। पहले बताये अनुसार शुद्धसत्त्वगुण से युक्त मायारुप उपाधिवाले ईश्वर इस जगत के नियन्ता हैं । ईश्वर के शरीर को (१५) "कारणशरीर" कहा जाता हैं, जो सत्त्वगुण से वृद्धिवंत समष्टि अज्ञान ही हैं।
__व्यष्टि अज्ञान : अविद्या :- व्यष्टि अज्ञान यही अविद्या और उससे युक्त यही जीवात्मा और प्राज्ञ कहा जाता हैं । व्यष्टि अज्ञान का स्वरुप आदि समजाते हुए सर्ववेदांत सिद्धांत सारसंग्रह में कहा है कि,
अज्ञानं व्यष्ट्यभिप्रायादनेकत्वेन भिद्यते । अज्ञानवृत्तयो नाना तत्तद्गुणविलक्षणाः ॥३१६॥ व्यष्ट्यभिप्रायाभूरुहा इत्येनकता । यथा तथैवाज्ञानस्य व्यष्टितः स्यादनेकता ॥३१७॥ व्यष्टिर्मलिनसत्त्वैषा रजसा तमसा युता । ततो निकृष्टा भवति योपाधिः प्रत्यागात्मनः ॥३१८॥ चैतन्यं व्यष्ट्यवच्छिन्नं प्रत्यगात्मेति गीयते । साभासं व्यष्ट्युपहितं सत्तादात्मेन तद्गुणैः ॥३१९॥ अभिभूतः स एवात्मा जीव इत्यभिधीयते । किंचिज्ज्ञत्वानीश्वरत्वसंसारित्वादिधर्मवान् ॥३२०॥ अस्य व्यष्टिरहंकारकारणत्वेन कारणम् । वपुस्तत्राभिमान्यात्मा प्राज्ञ इत्युच्यते बुधैः।।३२१॥
भावार्थ :- व्यष्टि के अभिप्राय से अज्ञान अनेकरुप से भेद प्राप्त करता हैं,और तत् तत् गुण से विलक्षण अनेक प्रकार की अज्ञान की वृत्तिर्यां वह व्यष्टि अज्ञान हैं । जैसे भिन्न-भिन्न वृक्ष, वन की व्यष्टि के अभिप्राय से अनेक हैं। और उस तरह से उन में अनेकता गिनी जाती हैं, वैसे व्यष्टि के अभिप्राय से अज्ञान में अनेकता मानी जाती हैं। यह व्यष्टि अज्ञान रजोगुण और तमोगुण से (ज्यादा) युक्त हैं, उसमें सत्त्वगुण के अंश मलिन तथा कम होते हैं, इसलिए वह निकृष्ट अर्थात् बहोत ही अधम हैं, और वह प्रत्यगात्मा को उपाधिरुप हैं। (१५) सर्वज्ञत्वेश्वरत्वादिकारणत्वान्मनीषिणः । कारणं वपुरित्याहुः समष्टिं सत्त्वबृंहितम् ।।३१३।।
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