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________________ ३३८ षड्दर्शन समुच्चय भाग -१, परिशिष्ट-१, वेदांतदर्शन श्रीशंकराचार्य जीव और ईश्वर का भेद इस तरह से बताते हैं - "विशेषो हि भवति शरीरपरमेश्वरयोः एकः कर्ता भोक्ता धर्माधर्मसाधनः सुखदुःखादिमांश्च एकस्तद्विपरीतोऽपहत पाप्मत्वादिगुणः । एकस्य भोगो नेतरस्य । (शांकरभाष्य) । ईश्वर और जीव में स्वतः व्यावहारिक भेद हैं । ईश्वर समस्त जगत के अंतर्यामी और साक्षी है तथा जीव जगत का भोक्ता, प्रमाता और कर्ता हैं । ईश्वर जहाँ माया से उपहित होता है, वहाँ जीव अविद्या से आविष्ट रहता हैं। जीव की सत्ता केवल एक शरीर के उपर ही हैं । जब कि, ईश्वर की सत्ता इस नामरुपात्मक अखिलसृष्टि के उपर हैं। जीव और ईश्वर के बीच के संबंध के विषय में भिन्न-भिन्न मान्यतायें प्रवतित हैं। कोई-कोई के मतानुसार जीव और ईश्वर के बीच अंश और अंशी का संबंध हैं । अर्थात् जीव ईश्वर का ही अंश हैं। परंतु इस मान्यता में जीव के सभी दोष ईश्वर के उपर भी आ जाने की आपत्ति होने से यह मान्यता का ज्यादा स्वीकार नहीं हुआ है। वेदांतसार अनुसार जीव और ईश्वर के बीच उपाधिगत भेद हैं। इसलिए वहाँ अंश-अंशी के संबंध रहते नहीं हैं । उपरांत, जीव और ईश्वर के बीच स्वरुपगत भेद हैं। सिद्धान्तलेशसंग्रहकार जीव-ईश्वर के बीच का सूक्ष्म भेद समजाते हुए बताते है कि, अनादि अनिर्वचनीय माया में प्रतिबिंबित चैतन्य वह ईश्वर और माया की ही आवरण और विक्षेपशक्तियुक्त अविद्या में प्रतिबिंबित चैतन्य वह जीव । माया रजस् तथा तमस् से अनभिभूत सत्त्वप्रधान है, जब कि अविद्या रजस् तथा तमस् से अभिभूत मलिनसत्त्वप्रधान हैं। एक मतानुसार विक्षेप नाम की शक्ति के प्राधान्य वाली मूल प्रकृति वह माया हैं और यह माया ईश्वर की उपाधि हैं । आवरण शक्ति के प्राधान्यवाली मूल प्रकृत्ति वह अविद्या हैं । अविद्या जीव की उपाधि हैं। संक्षेपशारीरककार के मतानुसार माया की दो (१४) उपाधियाँ हैं । (१) कारणोपाधि, कि जिससे जगत की रचना होती है और (२) कार्योपाधि, कि जिसमें माया के कार्य अंत:करण आदि आ जाते हैं । ईश्वर कारणोपाधि से युक्त हैं और जीव कार्योपाधि से युक्त हैं । इस विषय की अधिक स्पष्टता और भिन्न-भिन्न मान्यताओंकी चर्चा प्रतिबिंबवाद आदि वादो की चर्चा में सोचेंगे । वेदांतपरिभाषा के विषयपरिच्छेद में भी इस विषय की भिन्न-भिन्न अभिप्रायो को लेकर विचारणा की गई हैं । • अज्ञान :- अद्वैतवेदांती ब्रह्म को निर्गुण, निर्विशेष, निष्क्रिय मानते हैं, इसलिए वह सृष्टि का निर्माण नहीं कर सकता। इस प्रकार तो ब्रह्म जगत का निमित्तकारण या उपादानकारण नहीं बन सकेगा। फिर भी जगत दिखता है, महसूस होता है, इसलिए कम से कम उसकी व्यावहारिक सत्ता तो माननी ही पडे, ऐसा हैं । तो यह किस तरह से संभव होगा? इसके विषय में अपना अभिप्राय बताते हुए अद्वैतवेदांती कहते हैं कि, ब्रह्म की ही शक्ति ऐसे अज्ञान से अथवा माया द्वारा जगत बनता हैं । यह अज्ञान या माया ब्रह्म की ही शक्ति हैं । अज्ञान के नामान्तर और उसका स्वरुप बताते हुए श्रीशंकराचार्य सर्ववेदांतसिद्धांत-सार-संग्रह में बताते हैं कि अज्ञानं प्रकृतिः शक्तिरविद्येति निगद्यते । तदेतत्सन्न भवति नासद्वा शुक्तिरौप्यवत् ॥३०५॥ (१४) कार्योपाधिरयं जीवः कारणोपाधिरीश्वरः । कार्यकारणतां हित्वा पूर्णबोधोऽवशिष्यते ॥ (संक्षे.शा.) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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