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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग -१, परिशिष्ट-१, वेदांतदर्शन ३३५ जीव के तीन शरीर होते है :- स्थूल, सूक्ष्म तथा कारण । स्थूल शरीर पंचभूतो से निर्मित हैं । सूक्ष्म शरीर पांच प्राण, मन, बुद्धि तथा दस इन्द्रियों से निर्मित हैं। कारण शरीर अविद्या निर्मित आवरण हैं। (इसका विशेष स्वरुप आगे बताया जायेगा।) जाग्रत अवस्था में जीव इन्द्रियों द्वारा बाह्य विषयो-पदार्थो को जानता है। स्वप्न में मन तथा अवचेतन सूक्ष्म वृत्तियों से विषयो को जानता है। सुषुप्ति वह अविद्या की सूक्ष्म वृत्तियों से घिरे हुए चैतन्य और आनंद के एकरस रुप होती हैं। तुरीय चैतन्य शुद्ध आत्मा आत्मा हैं। जो निरुपाधि, अद्वितीय, एकरस तथा निर्विशेष हैं। वह सामान्य तथा विशेष से रहित हैं। गुण और क्रिया से रहित हैं। वह अतीन्द्रिय (इन्द्रियगम्य नहीं हैं।) अविकारी, अनिर्वचनीय हैं । उसकी व्याख्या नहीं हो सकती। विशेष में, प्रकटार्थ विवरणकार ने (सिद्धांतलेश संग्रह १-२६) सर्वभूत-प्रकृति, चिन्मात्रसम्बन्धिनी, अनादि और अनिर्वचनीय माया में, चैतन्य के प्रतिबिंब को ईश्वर और माया की अविद्या नामवाली आवरणविक्षेप शक्तियों से युक्त, परिच्छिन्न आत्मप्रदेशो में चैतन्य के प्रतिबिंब को जीव माना हैं। श्री विद्यारण्य मुनिने माया में प्रतिबिंबित चैतन्य के प्रतिबिंब को जीव कहा हैं। और श्रीसर्वज्ञात मुनि ने अंतःकरण में प्रतिबिंबित चैतन्य के प्रतिबिंब को जीवसंज्ञा दी हैं। श्री विद्यारण्य मुनि ने जीव के प्रातिभासिक, व्यावहारिक और पारमार्थिक ऐसे तीन रुपो का वर्णन किया हैं । यहाँ उल्लेखनीय है कि, जीव के अस्तित्त्व के विषय में प्रतिबिंबवाद और अवच्छेदकवाद का अपना विशिष्ट मत है । जीव की उपाधि को अविद्या कहा जाता हैं । अविद्या में प्रतिबिंबित हुआ या अविद्या से अवच्छिन्न रहा हुआ चैतन्य वही जीव हैं। ईश्वर का स्वरुप :- ब्रह्म अपनी बीजशक्तिरुप अनादि माया द्वारा जगत की उत्पत्ति के लिए तटस्थ लक्षण धारण करने में समर्थ होता हैं । अर्थात् जगत का उपादानकारण और निमित्तकारण बनने में समर्थ बनता हैं यानी की माया शक्ति से युक्त इस ब्रह्म को सगुण ब्रह्म अथवा ईश्वर कहा जाता हैं। उपनिषदो में ही दो प्रकार के ब्रह्म बताये गये हैं। (१) परब्रह्म और (२) अपरब्रह्म । प्रथम निर्गुण ब्रह्म है और द्वितीय सगुण ब्रह्म या ईश्वर हैं। वेदांतसार में बताया है कि, ईश्वर जगत का निमित्तकारण भी है और उपादानकारण भी हैं । ईश्वर अपने चैतन्य की प्रधानता से निमित्तकारण हैं । जब कि अपनी अज्ञान उपाधि की प्रधानता से उपादानकारण हैं। "शक्तिद्वयवद्ज्ञानोपहितं चैतन्यं स्वप्रधानतया निमितं स्वोपाधिप्रधानं तथा उपादानं च भवति । यथा लूता तन्तुकार्यं प्रति स्वप्रधानतया निमित्तं स्व शरीरप्रधानतयोपादानञ्च" (वेदांतसार) जैसे मकड़ी अपने चैतन्य अंश के प्रधान से जाले की उत्पत्ति का निमित्तकारण है और शरीर की प्रधानता से उपादानकारण हैं, वैसे ईश्वर भी अपनी माया-उपाधि की प्रधानता से जगत का उपादानकारण हैं, शुद्ध चैतन्य की प्रधानता से निमित्तकारण हैं। सर्व वेदांत सिद्धांत-सार-संग्रह में भी कहा हैं कि, स्वप्राधान्येन जगतो निमित्तमपि कारणम् । उपादानं तथोपाधिप्राधान्येन भवत्ययम् ॥३३३॥ यथा 'लूता' निमित्तं च स्वप्रधानतया' भवेत् । स्वशरीरप्रधानत्वेनोपादानं तथेश्वरः ॥३३४॥ (जिसका वर्णन आगे किया जायेगा वह) केवलाद्वैत वेदांत (श्रीशंकराचार्यजी मान्य वेदांत) की अपेक्षा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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