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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग -१, परिशिष्ट - १, वेदांतदर्शन अनुभव करता हैं। इस अवस्था को "सुषुप्ति" भी कही जाती हैं। जब अज्ञान व्यक्त अवस्था में आता है तब प्रथम उसमें से सत्रह अवयव (पाँच ज्ञानेन्द्रिय, बुद्धि, मन, पांच कर्मेन्द्रिय और पाँच वायु) वाला सूक्ष्मशरीर जन्म लेता है । व्यष्टि अज्ञान से उपहित चैतन्य के सूक्ष्म शरीर को "तैजस्" कहा जाता हैं। इस प्रकार सूक्ष्म शरीर की अवस्था में जीव का नाम "तैजस्" हैं। जीव की इस अवस्था को "स्वप्न" कहा जाता है। यह तैजस् अपने मन की वृत्तियों के द्वारा सूक्ष्म विषयों का अनुभव करता है । जब स्थूल शरीर की उत्पत्ति हो, तब जीव को 'विश्व' कहते हैं, उसकी यह अवस्था जाग्रत अवस्था है । इस लोकमें से परलोकमें संसरण करता हुआ जीव अपने सत्रह अवयवोवाले सूक्ष्म शरीर के साथ उत्क्रमण और संक्रमण करता है। (इस विषय की विशेष प्रक्रिया आदि का वर्णन आगे बताया जायेगा ।) ३३४ जीव की संख्या के विषय में तीन मत प्रवर्तित है - एकशरीरैकजीववाद, सविशेषानेकशरीरैकजीववाद, और अविशेषानेकशरीरैकजीववाद । प्रथम मत के अनुसार जीव एक ही है और वह एक ही शरीर में रहा हुआ है। (बाकी के शरीर स्वप्न में देखे हुए शरीर की तरह प्रातिभासिक मात्र हैं) दूसरे मतानुसार ब्रह्मा का प्रतिबिंब हिरण्यगर्भ मुख्य जीव हैं। बाकी के जीव मुख्य जीव के प्रतिबिंब हैं। तीसरा मत उपाधियों की अनेकता के कारण जीव की अनेकता को मानता हैं । आत्मा परब्रह्म, अद्वितीय, एक तथा आकाश की तरह विभु हैं। वह जगत का आधार हैं। इन्द्रिय, मन, अहंकार तथा शरीर की उपाधियों से भरा हुआ है और पृथक्-पृथक् किया हुआ आत्मा ही जीव हैं। आत्मा एक परन्तु उपाधिभेद के कारण वह अनेक जीवो के रुप में प्रतीत होता है है “पर एवात्मा देहेन्द्रियमनोबुद्ध्याद्युपाधिभिः परिच्छिद्यमानो बालैः शारीर इत्युपचर्यते ॥” (शां.भा.) मन, बुद्धि, चित्, अहंकार- ये चारो के अंतःकरण ही जीव को पृथक् करते हैं । आत्मा अहंकारी और अतीन्द्रिय चैतन्य है, जीव व्यावहारिक चैतन्य है । वह न तो आत्मा का अंश है, न तो उसका परिणाम है । वह उसकी विभिन्न (जीव) रुपमें प्रतीति मात्र हैं (शरीरादि अविद्या का उत्पादन है, वास्तविक नहीं है ।) जब जीवगत अविद्या नष्ट हो जाती है, तब वह अपने मूलरुप "आत्मा" में आ जाता है - "मायानिर्मितस्य जीवस्य अविद्याप्रत्युपस्थापितस्य अविद्यानाशे स्वभावरुपत्वात् ।” (शां.भा.) जीव ही ज्ञान करनेवाला, भोक्ता और कर्ता हैं । वही पुण्य-पाप को पैदा करता है और उसके फल को भुगतता है। वही एक जन्म से आवागमन और दूसरे जन्म में संसरण करता हैं। वही बंध और मोक्ष का अधिकारी है। यद्यपि आत्मा चिदानंदमय होने के कारण मृत्यु प्राप्त नहीं करता है, फिर भी कामनाओं के वश बनकर कार्य करने के कारण उसके फल भुगतने के लिए अन्य अन्य शरीर ग्रहण करने स्वरुप मृत्यु होती है; ऐसा कहा जाता है, " यद्यपि विज्ञानात्मपरमात्मनोऽनन्य एव तथापि अविद्याकामकृतं तस्मिन् मर्त्यत्वम् अधिरोपितम्...'' (शा.भा.) जीव और आत्मा के बीच का अंतर पारमार्थिक नहीं हैं, किन्तु अविद्या की उपाधियों के कारण व्यवहारिक है। आत्मा से जीव की उत्पत्ति नहीं होती हैं । पूर्वोक्त अन्त:करण और शरीरादि उपाधियों का जन्म ही जीव का आरंभ और उत्पत्ति समजी जाती हैं। जैसे उपाधि दूर होने से स्फटिक अपना निर्मल मूल स्वरुप प्राप्त कर लेता है, वैसे वे उपाधियाँ नष्ट होने से जीव शुद्ध आत्मस्वरुप को प्राप्त कर लेता हैं। I Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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