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षड्दर्शन समुच्चय भाग -१, परिशिष्ट-१, वेदांतदर्शन
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अनश्वर, अखंड, निरवयव, सत्-चित् स्वरुप, निविशेष, अद्वितीय, अक्रिय, निरंजन, आनंदघन, अव्यक्त, प्रशांत, आद्यन्तहीन है।
• ब्रह्म ज्ञान-ज्ञाता-ज्ञेय, ये त्रिपुटी से रहित है। • ब्रह्म समस्त जगत का आधार है। ब्रह्म में से ही समस्त प्रपंच का प्रादुर्भाव होता है। • ब्रह्म ही सम्पूर्ण स्थूल-सूक्ष्म सृष्टि का उपादान कारण और निमित्तकारण भी है।
• इस जगत की उत्पत्ति, स्थिति और लय का कारण एकमात्र ब्रह्म है। ब्रह्म में से ही जगत की उत्पत्ति होती है। उसमें ही जगत अवस्थित रहता है और उसमें ही लय पाता हैं।
• ब्रह्म नाम-रुप से पर है।
जीव का स्वरुप : जीव के स्वरुप के विषय में अनेक मत-मतांतर प्रवर्तित है। श्रीशंकराचार्य एकमात्र ब्रह्मतत्त्व का स्वीकार करके अन्य सर्व का उसके अंदर अन्तर्भाव स्वीकार करते है। इसलिए ही "जीवो ब्रह्मैव नापरः"- इस उक्ति की उद्घोषणा करते है। उपरोक्त कथन की सिद्धि के लिए ही अज्ञान और अविद्या की सहायता लेते है। जीव का जो ब्रह्म से व्यवहारिक भेद परिलक्षित होता है। वह अविद्याजन्य ही है। जब तक जीव का बुद्धिरुप उपाधि के साथ संबंध रहता है, तब तक जीव का जीवत्व और संसारित्व है। (८) श्रीवाचस्पतिमिश्र के मतानुसार जीव का स्वरुप ब्रह्म से अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। (९)उनके मतानुसार अविद्या जीव का अधिकरण हैं । वेदांतसार में कहा है कि- व्यष्टि- अज्ञान की उपाधि से युक्त चैतन्य को जीव कहा जाता है। (अज्ञान के व्यष्टि और समष्टि ऐसे दो भेद है। उसका स्वरुप आगे बताया जायेगा ।) सृष्टि का आरंभ होने पर इन्द्रिय, मन, बुद्धि तथा शरीर की उत्पत्ति होने से उससे उपहित चैतन्य वह जीव है । जीव को मलिनसत्त्वप्रधान कहा है। अर्थात् वह सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण से अभिभूत हुआ होता है।
श्रीशंकराचार्य ने जीव की व्याख्या इस प्रकार की है -अस्ति आत्मा जीवाख्यःशरीरेन्द्रियपञ्जराध्यक्षः कर्मफलसम्बन्धी । - शरीर और इन्द्रियाँ रुप पिंजरे का अध्यक्ष कर्मफल के साथ संबंधवाला आत्मा ही जीव के नाम से पहचाना जाता है। (यहाँ इन्द्रियो में मन और बुद्धि का भी अन्तर्भाव करना है। क्योंकि वह आंतरइन्द्रिय है।)
जीव का अस्तित्व भी प्रतिबिम्बवाद और अवच्छेदकवाद के सिद्धांतो के उपर कल्पित किया गया है। जीव की उपाधि को अविद्या कहा जाता है। (दोनों वाद का स्वरुप आगे बताया जायेगा ।) इस प्रकार अविद्या में प्रतिबिंबित हुआ या अविद्या से अवच्छिन्न हुआ चैतन्य वह जीव कहा जाता है। इस तरह से जीव और परम
चैतन्य-परमात्मा या ब्रह्म के बीच कोई तात्त्विक भेद नहीं है। केवल अज्ञानजन्य अविद्या की उपाधि दूर हो जाये, तो तुरंत ही जीव ब्रह्मरुप को प्राप्त करता है। इसलिए ही कहा है कि, “जीवो ब्रह्मैव नापरः।"
यह जीव ज्ञान प्राप्त करनेवाला, कर्ता, भोक्ता और संसारी है। इस प्रकार वह जगत को जानता हैं, कार्य करता है, उसका अच्छा-बुरा फल भुगतता हैं। कर्मफल भुगतने के लिए उसको पुनर्जन्म लेना पडता है। अलबत्त, यह जन्म-मरण शरीर का ही होता हैं। जीव मूल तो सर्वव्यापक हैं परन्तु उपाधि के कारण सीमित लगता हैं।
___जीव के तीन नाम दिये हैं, वे उसकी अवस्थाओं के कारण दिये हैं । अव्यक्त अवस्था में रहे हुए व्यष्टिरुप अज्ञान से उपहित चैतन्य, “प्राज्ञ" कहा जाता है। इस अवस्था में वह अज्ञान की सूक्ष्म वृत्तियों के द्वारा आनंद का
(८) यावदेव चायं बुद्ध्युपाधिसम्बन्धस्तावज्जीवस्य जीवत्वम् । ब.सू.शा.भा.२.३३.) बुद्ध्याधुपाधिकृतमस्य जीवत्वमिति । (भामती (२.३.३०) (९) जीवानां स्वरुपं वास्तवं ब्रह्म- भामती शा.भा. १-४-३
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