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________________ ३३२ षड्दर्शन समुच्चय भाग -१, परिशिष्ट-१, वेदांतदर्शन "स यथा अग्नेः क्षुद्रा : विस्फुलिङ्गा व्युच्चरन्ति एवमेवास्मदात्मनः ब्रह्मणः सर्वे प्राणाः सर्वे लोकाः देवाः सर्वाणि भूतानि व्युच्चरति ।" वही एक ब्रह्म आत्मा के रुप में संपूर्ण जीवो में व्याप्त हैं । “एको देवः सर्वभूतेषु गूढः सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा" (श्वेताश्वतर उपनिषद् ) जिस तरह पानी में डाला हुआ नमक दिखाई नहीं देता। फिर भी वह पानी के प्रत्येक अणु में व्याप्त रहता हैं । उसी तरह से ब्रह्म संसार के कण-कणमें व्याप्त हैं । “स यथा सैन्धवाखिल्य उदके प्राप्त उदकमेवानुविलियेत्, न हि अस्य उद्ग्रहणाय इव स्याद्यतो यतस्त्वाददीत लवणमेवैकं वा अरे इदं महद्भूतम् अनन्तम् अपारं विज्ञानघन एव" (बृहदारण्यक उपनिषद्) __माया के कारण ही ब्रह्म का जगतस्वरुप में ज्ञान होता हैं । ब्रह्म के ज्ञान के अनंतर (बाद में) जगत बाधित होता है और अविद्याजनित क्लेशो की निवृत्ति हो जाती हैं। ___ ब्रह्म का विचार दो दृष्टि से किया जा सकता हैं।(१) व्यावहारिक दृष्टि से :- इस दृष्टि के अनुसार जगत को सत्य मानकर ब्रह्म को सृष्टिकर्ता, पालक, संहारक और सर्वशक्तिमान कहा जा सकता हैं । तथा (२) पारमार्थिक दृष्टि से :- इस दृष्टि के अनुसार ब्रह्म ही एकमात्र निर्गुण, अविकारी और निर्लिप्त सत्ता है। ___ श्री शंकराचार्यजी ने प्रथम को ब्रह्म का (६)तटस्थ लक्षण और दूसरे को (स्वरुपलक्षण कहा है। तटस्थ लक्षण कुछ कालावस्थायी आगंतुक गुणो का निर्देश करता है और स्वरुप लक्षण पदार्थ के तात्त्विक स्वरुप का निर्देश करता हैं। जैसे एक सामान्य नट रंगमंच के उपर राजा की भूमिका में आकर राजा के उचित कार्य करता है, तब नाटक की असमाप्ति तक ही उसका राजत्व रहता है, उसके बाद पुनः वह सामान्य नट हो जाता है, उसी तरह से ब्रह्म सृष्टिरचना के निमित्त से तटस्थ लक्षण धारण करता है और निर्गुण में से सगुण हो जाता हैं। बाकी वह स्वरुपतः तो निर्लिप्त, असंग और निर्विकार है । वेदांतपरिभाषामें भी कहा है कि तत्र लक्षणं द्विविधं -स्वरुपलक्षणं तटस्थलक्षणं च । तत्र स्वरुपमेव लक्षणं स्वरुपलक्षणम्, यथा सत्यादिकं ब्रह्मस्वरुपलक्षणम् । “सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म" (तै. २-१-१)xxxxx । तटस्थलक्षणं तु यावाल्लक्ष्यकालमनवस्थिते सति तद्व्यावर्तकं तदेव, यथा गन्धवत्त्वं पृथिवीलक्षणम् । प्रकृते ब्रह्मणि च जगज्जन्मादिकारणम् । अत्र जगत्पदेन कार्यजातं विवक्षितम् .xxx। यद्वा निखिलजगदुपादानत्वं ब्रह्मणो लक्षणम् । उपादानत्वं च जगदध्यासाधिष्ठानत्वम् जगदाकारेण विपरिणममानमायाधिष्ठानत्वं वा। आगे हुई चर्चा में पूर्वोक्त शास्त्रवचनो का भावार्थ स्पष्ट हो ही गया हैं, इसलिए पुनः उसकी विचारणा नहीं करते हैं। सारांश में, वेदांत दर्शन में ... • ब्रह्म ही सत्य तत्त्व है, उससे अतिरिक्त सर्व जगत मिथ्या हैं। • जीव भी ब्रह्म ही है परन्तु ब्रह्म से भिन्न नहीं हैं, वह ब्रह्म का ही अंश है। • ब्रह्म का स्वभाव निरपेक्ष होने से वह अद्वैत हैं। • अद्वैत ब्रह्म शुद्ध, बुद्ध, निर्गुण, नित्य, मुक्तस्वभाव, आनंदमय, चैतन्यस्वरुप, निर्विकार, निराकार, (६) तटस्थलक्षणत्वं कदाचित्वे सति व्यावर्तकत्वम् (सर्वलक्षणसंग्रह:) तटस्थलक्षणं तु यावल्लक्ष्यकालमनवस्थित्वे सति तव्यावर्तकत्वम् (वेदान्तपरिभाषा-विषयपरिच्छेदः) (७) स्वरुपलक्षणं स्वरुपं सावर्तकम् (सर्व.ल.संग्रह) स्वरुपमेव लक्षणं स्वरुपलक्षणम् (वेदांतपरिभाषा) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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