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षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, परिशिष्ट - १, वेदांतदर्शन
होता हैं। (७७०-७७१)
श्रीशंकराचार्य के मतानुसार ब्रह्म एक ऐसी सर्वव्यापी सत्ता हैं, कि जो जगत के अणु-अणु में व्याप्त हैं। जो निराकार, निर्विकार, अविनाशी, अनादि, चैतन्य और आनंदमय हैं। ब्रह्म की सिद्धि आत्मा के अस्तित्व से ही होती हैं। अर्थात् प्रथम तो आत्मा का अस्तित्व ही ब्रह्म की सिद्धि हैं। दूसरे नंबर में उसमें श्रुति प्रमाण हैं। श्रुति ब्रह्म का साक्षात्कार करनेवाले ऋषियों की अनुभूति की अभिव्यक्ति हैं । इसलिए उसमें शंका का कोई स्थान नहीं हैं। ब्रह्म की सिद्धि कभी भी अनुमान से हो नहीं सकती । उसके लिए शब्द प्रमाण का ही आश्रय लेना पडेगा ।
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ब्रह्म सत्, चित् और आनंद हैं। "सत्" का अर्थ हैं, अपने निश्चित स्वरुप से कभी भी व्यभिचरित न होनेवाला । (यद्रुपेण यन्निश्चितं तद्रुपं न व्यभिचरति तत्सत्यम् ) सत्य का कभी बाध होता नहीं हैं । (सत्यत्वं बाधराहित्यम्) ब्रह्म नित्य और अविकारी हैं । वह ज्ञानरूप और चैतन्य है, सदा प्रबुद्ध हैं । स्वप्न और सुषुप्त अवस्थाओं से रहित हैं । वह स्वतः प्रकाशशील हैं। पूर्णकाम होने के कारण वह‘“आनंदघन” कहा जाता हैं। इससे विपरीत संसार अनृत, जड और दुःखमय हैं। जगत् "सत्" नहीं हैं, क्योंकि ब्रह्मज्ञान से उसका नाश होता हैं। ब्रह्म अनंत और अद्वितीय हैं ।
ऐकमेवाद्वितीयं सन्नामरुपविवर्जितम् । सृष्टेः पुराऽधुनाप्यस्य तादृक्त्वं यदि तीर्यते ॥
वह नामरुपादि से हीन है, वह निरपेक्ष, स्वतंत्र, शुद्ध तथा अतीन्द्रिय सत्ता हैं। वह कर्ता नहीं है, इसलिए निष्क्रिय हैं।
अतः परं ब्रह्म सदद्वितीयं विशुद्धविज्ञानघनं निरञ्जनम् ।
प्रशान्तमाद्यन्तविहीनमक्रियं निरन्तरानंदरसस्वरुपम् ॥ (विवेकचूडामणि )
माया ब्रह्म की शक्ति है, परन्तु वह माया से लिप्त होती नहीं हैं। वह ब्रह्म नित्यसुखरुप, कला या अंशो से रहित, नामरुपादि से हीन अव्यक्त तेज हैं -
निरस्तमायाकृतसर्वभेदं नित्यं विभुं निष्कलमप्रमेयम् । अरुपमव्यक्तमनाख्यमव्ययं ज्योतिः स्वयं किञ्चदिदं चकास्ति ॥ (विवेकचूडामणि )
तदुपरांत, वह ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय की त्रिपुटी से रहित, अनंत, निर्विकल्पक, केवल और अखंड चैतन्यमात्र हैं । वह “अवाङ्मनसगोचर" हैं। ब्रह्म का कोई कारण नहीं हैं, वह कार्य-कारण की श्रृंखला से पर हैं। वह निर्गुण और निर्विशेष सत्ता हैं ।
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संपूर्ण जगत ब्रह्म का ही विवर्त हैं । जब सृष्टि के पहले ब्रह्म से अतिरिक्त कुछ भी नहीं था, तो अब उससे अतिरिक्त कुछ भी किस तरह से हो सकता हैं। जैसे मृत्तिका (मिट्टी) ही सत्य है, और उससे बने हुए घटादि भाजन केवल नाममात्र से विकार हैं, इस तरह से ब्रह्म ही सत्य हैं :
“सदेव सोम्येदमग्र आसीत् एकमेवाद्वितीयम्.... तदैक्षत एकोऽहं बहु स्याम् प्रजायेयेति..... यथा सोम्यैकेन मृत्पिण्डेन सर्वं मृन्मयं विज्ञातं स्यात् वाचारम्भणं विकारो नामधेय मृत्तिकेत्येव सत्यम् । ( छान्दोग्य उपनिषद् )"
बृहदारण्यक उपनिषद् में कहा गया है कि, जैसे धधकती ( भडकती) आग (अग्नि) से चारो ओर चिनगारीयाँ निकलती हैं, उसी प्रकार से ब्रह्म से यह संपूर्ण जगत उत्पन्न होता हैं।
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