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षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, परिशिष्ट - १, वेदांतदर्शन
दृश्यमान पदार्थो का जन्म भी होता नहीं हैं, परंतु स्थूल जगत की अभिव्यक्ति मात्र हैं। इसलिए अनादि और अनंत ब्रह्म ही इस जगत का कारण हैं ।
(४) छान्दोग्योपनिषद् में स्थूल जगत ब्रह्म की ही भौतिक अभिव्यक्ति मात्र हैं, उसका वर्णन करते हुए युक्ति सह बताया हैं कि,
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' (श्वेतकेतुने अपने पिता के समक्ष ब्रह्म के विषय में जिज्ञासा प्रकट की तब पिता ने श्वेतकेतु को ब्रह्म का स्वरुप बताते हुए कहा कि, "ब्रह्म यही तुम हो" अर्थात् आरम्भिक सत्य एक और अद्वितीय हैं। वही ब्रह्म हैं। इसी बात को स्पष्ट करते हुए पिता पुत्र को बताते है कि, जैसे एक मिट्टि के पिंड का ज्ञान होने से समस्त मृन्मय पदार्थों का ज्ञान हो जाता हैं। और जैसे सुवर्ण का ज्ञान होने से सुवर्ण से निर्मित कुंडल आदि रुप में उत्पन्न विकारो का ज्ञान हो जाता हैं। क्योंकि मृत्तिका में घटादि तथा सुवर्ण में कुंडलादि विकार हैं। परन्तु मृत्तिका और सुवर्ण से निर्मित सर्व पदार्थो में मृत्तिका तत्त्व और सुवर्ण तत्त्व तो एक ही होता हैं। मृत्तिका और सुवर्ण की आकृतियाँ तो विकार मात्र हैं। उसी तरह से यह स्थूल भौतिक जगत ब्रह्म की अभिव्यक्ति मात्र ही हैं ।
बृहदारण्यकोपनिषद् में याज्ञवल्क्य अपनी पत्नी मैत्रेयी को कहते हैं कि, “ब्रह्मणेदं क्षत्रियमिमे लोका इमे देवा इमानि भूतानि इदं सर्वं यदयमात्मा । (बृ. ३.२.४) । - ब्रह्म से पृथक् कोई सत्ता नहीं हैं। समस्त जगत ब्रह्म का ही रूप हैं । ब्राह्मणत्व, क्षत्रियत्व आदि समस्तलोक, सहस्रदेवता, समस्त भूत ये सब आत्मा ही हैआत्मा का ही स्वरुप हैं
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ब्रह्म में तीनो काल में भेद नहीं हैं। इस बात को स्पष्ट करते हुए सर्ववेदांत - सिद्धांत - सार संग्रह में कहा हैं कि, भ्रांत्या ब्रह्मणि भेदोऽयं सजातीयविलक्षणः । कालत्रयेऽपि हे विद्वन् वस्तुनो नैव कश्चन ॥७६८॥ यत्र नान्यत्पश्यतीति श्रुतिद्वैतं निषेधति । कल्पितस्य भ्रमाद्भूम्नि मिथ्यात्वावगमाय तत् । ॥७६९॥
भावार्थ :- हे विद्वान् शिष्य ! ब्रह्म में वास्तविक रुप से तीनो काल में किसी भी प्रकार का भेद नहीं हैं। सजातीय आदि (सजातीय, विजातीय, और स्वगत) लक्षणवाला भेद ब्रह्म के विषय में भ्रान्ति से ही किया जाता हैं। श्रुति भी साक्षी देते हुए कहती हैं कि, "यत्र नान्यत् पश्यति" -ज्ञानीपुरुष ब्रह्म के विषय में दूसरा कुछ देखता नहीं हैं । - ऐसा कहकर अन्य वस्तु का (ब्रह्म से भिन्न वस्तु का) निषेध ही करती हैं अर्थात् "द्वैत” का निषेध हैं। और इसलिए ही परब्रह्म में भ्रम से कल्पित किया हुआ सर्व भी मिथ्या ही हैं, ऐसा पूर्वोक्त श्रुति का समजाना हैं।
ब्रह्मकी अद्वितीयता को दृढ करते हुए वहीं आगे कहा हैं कि,
*" (५)ब्रह्म सदा अद्वितीय है । इसलिए ही विकल्प या भेद से रहित, उपाधिरहित, निर्मल, निरंतर, आनंद से व्याप्त, नि:स्पृह, चेष्टारहित, किसी भी स्थान से रहित और केवल एक ही हैं ।
उसमें किसी भी प्रकार का भेद नहीं हैं। गुण दिखाई नहीं देते। वाणी और मन की प्रवृत्ति नहीं हैं। जो केवल, परमशांत, अनंत, आदिसे रहा हुआ, केवल आनंदस्वरुप और अद्वितीय होनेसे सत् स्वरुप से ही प्रकाशित
( ४ ) तत्त्वमसि श्वेतकेतो (छा. ३.६.८.७) (ii) सदैव सौम्येदमग्र आसीत् एकमेवाद्वितीयम् । (छा. ३.६.२) (छा. ६.१.२-७) ( ५ ) यतस्ततो ब्रह्म सदाऽद्वितीयं विकल्पशून्यं निरुपाधि निर्मलम् । निरंतरानंदघनं निरीहं निरास्पदं केवलमेकमेव ॥ नैवास्ति काचन भिदा न गुणप्रतीतिर्नो वाक्प्रवृत्तिरपि वा न मनः प्रवृत्तिः । यत्केवलं परमशांतमनंतमाद्यमानंदमात्रमवभाति सदद्वितीयम् ॥७७०-७७१।।
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