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षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, परिशिष्ट - १, वेदांतदर्शन
का अधिष्ठान (आधार) ही विवक्षित हैं ।
मिथ्या रजत के भ्रम का अधिष्ठान जैसे शुक्ति (सीप) होती हैं, वैसे ब्रह्म में भासमान (भासित) मायाकल्पित प्रपञ्च का अधिष्ठान (विवर्तोपादान) ब्रह्म ही हैं । परन्तु माया नहीं हैं। उस कारण से अतिव्याप्ति भी नहीं है ।
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इसके उपरांत भी, “जिसका परिणाम होता हैं, वही उपादान होता हैं।" ऐसा मानने का आपका आग्रह हो, तो दूसरा कल्प इस अनुसार जानें- जगद्रुप से जगद्रूप परिणाम को प्राप्त होनेवाली (“परिणत होनेवाली”) माया का अधिष्ठानत्व ब्रह्ममें होना " - वही उसका उपादानत्व हैं । माया में परिणामि उपादानत्व होने पर भी स्वाधिष्ठान ब्रह्म के बिना वह कुछ भी नहीं कर सकती। इस कारण से ब्रह्म में ही उपादानत्व संभवित हो सकता हैं I
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तदुपरांत ब्रह्म में जो उपादानकारणता हैं, उसके ही अभिप्राय से " इदं सर्वं यदयमात्मा" - जो यह सर्व हैं, वह आत्मा ही हैं - इत्यादि पूर्वोक्त श्रुतियो में ब्रह्म और प्रपंच के तादात्म्य (अभेद) का उपदेश किया गया हैं। "घट हैं", "घट भासित होता है" और "घट इष्ट है" - इत्यादि लौकिक व्यवहार भी सच्चिदानन्दरुप ब्रह्म के ऐक्य - अध्यास से ही होते हैं ।
संक्षेप में, सर्व प्रपंच का मूलभूत कारण ब्रह्म हैं। कहने का सार यही है कि, जगत के मूल में एक ही तत्त्व विद्यमान हैं और वह तत्त्व जगत के अधिष्ठानभूत ब्रह्म हैं और उसमें से उद्भूत अन्य सर्व प्रतिभासित पदार्थो की सत्ता असत् है । वह ब्रह्म तत्त्व नित्य, शुद्ध, बुद्ध, मुक्त स्वभाव, चिन्मयात्मा और परमतत्त्व स्वरुप हैं।
तैतरीयोपनिषद् में कहा है कि, "यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते । (ते. ३.३.१) - तैतरीय उपनिषदके इस मंत्र में ब्रह्मसूत्र का लक्षण करते हुए कहा है कि, जिस से जगत की सृष्टि उत्पन्न होती हैं। जिस में जगत अवस्थित रहता हैं और जिस में यह जगत विलीन होता है, वह ब्रह्म हैं । और उस ब्रह्म की ही जिज्ञासा करें।
वस्तु
ब्रह्म ही सत्य- वास्तविक उपचाररहित तत्त्व हैं। उसके प्रपंचरुप जगत तो आरोपित हैं । उसी वस्तु को बताते हुए “सर्ववेदांतसिद्धान्तसार संग्रह " ग्रंथमें बताया है कि, (३) सत्य, ज्ञान आदि लक्षणयुक्त परब्रह्म ही हैं। उसमें जैसे आकाश में नीले रंग का आरोप किया जाता हैं, वैसे यह जगत आरोपित मालूम पडता हैं । कठोपनिषद् और ब्रह्मसूत्र - शांकरभाष्य में ब्रह्म के स्वरुप का वर्णन करते हुए बताया हैं कि,
यदस्य संसारवृक्षस्य मूलं तदेव शुक्रं शुद्धं ज्योतिष्यच्चैतन्यात्मज्योतिः स्वभावं तदेव ब्रह्म । ( कः ३, शा. भा. २.३.१ )
भावार्थ:- कठोपनिषद् में अश्वत्थ वृक्ष के माध्यम से ब्रह्म का स्वरुप बताते हुए कहा है कि, यह सनातन अश्वत्थ वृक्ष उर्ध्वमूल और अध: शाखा है, वही शुद्ध, शुभ्र, ब्रह्म और अमृतरूप हैं । समस्त लोक उसमें ही आश्रित रहा हैं और उस ब्रह्म से अतिरिक्त कुछ भी नहीं हैं। संक्षिप्त में ब्रह्म में समस्त जगत अध्यस्त हैं। ब्रह्मसूत्रकार ने भी पूर्वोक्त बात को दृढ करते हुए ब्रह्मसूत्र में कहा है कि, जन्माद्यस्य यतः । ( ब्र. सू. १-१-२ )
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-वही ब्रह्म हैं, कि जिस से जगत की उत्पत्ति हुई हैं और जिस में जगत की स्थिति और लय होता हैं गौडपादकारिका में ब्रह्म को सृष्टि-स्थिति-लय के कारण के रुप में बताते हुए युक्ति दी हैं कि, आदावन्तेऽपि यन्नास्ति वर्तमानेऽपि तत्तथा । (गौ. का. २)
भावार्थ:- जो पदार्थ सृष्टि के आदि और अंत मे रहता नहीं हैं, वह मध्य में भी रह सकता नहीं हैं। मध्यगत ( ३ ) वस्तु तावत्परं ब्रह्म सत्यज्ञानादिलक्षणम् । इदमारोपितं यत्र भाति खे निलतादिवत् ॥ २९८ ॥ सर्व वेदांत-सिद्धांत-सार संग्रह ॥
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