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षड्दर्शन समुच्चय भाग -१, परिशिष्ट-१, वेदांतदर्शन
ब्रह्म ही सत्य तत्त्व हैं और उसका निरपेक्ष स्वभाव होने के कारण वह अद्वैत हैं । ब्रह्म से भिन्न दृष्टिपथ में आते हुए पदार्थ अनित्य और अनात्म हैं। अद्वैत ब्रह्म निर्गुण, नित्य, शुद्ध, बुद्ध, मुक्तस्वभाव हैं ।
__ अद्वैतब्रह्म की व्याख्या करते हुए कहा हैं कि, अन्य जगतो नामरुपाभ्यां व्याकृतस्य अनेककर्तृभोक्तृसंयुक्तस्य प्रतिनियतदेशकालनिमित्तक्रियाफलाश्रयस्य मनसाऽपि अचिन्त्यरचनारुपस्य जन्मस्थितिभङ्गं यतः सर्वज्ञात् सर्वशक्तेः कारणाद् भवन्ति तद् ब्रह्म ।- (ब्र. सू. शा. भा. १.१.२) ____नाम तथा रुप द्वारा व्यक्त अनेक कर्ताओ और भोक्ताओ से संयुक्त ऐसी क्रिया और फल का आश्रय जो देश, काल द्वारा व्यवस्थित हैं, मनुष्य के मन से भी जिस की रचना या स्वरुप का विचार असंभव हैं, इस जगत की उत्पत्ति, स्थिति और नाश जो सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान कारण से होता हैं, वह ब्रह्म हैं।
यद्यपि, ब्रह्म द्रव्य नहीं हैं। फिर भी वह इस संसार का अधिष्ठान हैं। वह परम सत् होने पर भी सर्व पदार्थो में अंतर्भूत होता हैं तथा चेतन और अचेतन, सामान्य और विशेष सर्व पदार्थो का एक महा सामान्य (ब्रह्म) में अंतर्भाव होता हैं। जैसे भारत नकशे में एकत्र दृष्टिगोचर होता हैं, परंतु जब भारत को ढूंढा जाता हैं, तब कहीं भी एकत्र एकवस्तु के रुप में परिलक्षित होता नहीं हैं, उसी प्रकार ब्रह्म समस्त संसार में व्याप्त हैं, परंतु देशकालातीत होने के कारण एकत्र एक स्वरुप में उपलब्ध होता नहीं हैं।
_इसलिए वेद भी "नेति नेति" यह निषेध परक वाक्य द्वारा दृश्यमान जगत का बाध करके निविशेष ब्रह्म की ओर परमतत्त्व होने का संकेत देते हैं। परन्तु ब्रह्म की सत्ता का स्वीकार करते हुए श्री शंकराचार्य ने कहा हैं कि, इस जगत का अवसान ब्रह्म में ही होता हैं । इसलिए "नेति नेति" आदि वाक्यो से जगत् का मूलतत्त्व के रुपमें निषेध किया गया हैं। इस कथन में ब्रह्म के अवसान का अभाव माना गया हैं । (१) वस्तुतः उसका अभिप्राय यह हैं कि, वह ब्रह्म वाङ्मनसातीत होने पर भी अभावक नहीं हैं ।(२) और भावरुप में उसका स्वरुप सत्, चित् और आनंदमय हैं, इसलिए ब्रह्म की प्राप्ति को परम पुरुषार्थ माना जाता हैं।
ब्रह्म समस्त जगत का उपादान हैं । जगदुपादानत्व ही ब्रह्म का लक्षण हैं । वेदांतपरिभाषा में ब्रह्म का लक्षण और उसके बारे में शंका-समाधान करते हुए कहा हैं कि,
"निखिलजगदुपादानत्वं ब्रह्मणो लक्षणम् । उपादानत्वं च जगदध्यासाधिष्ठानत्वम्, जगदाकारेण विपरिणममानमायाऽधिष्ठानत्वं वा । एतादृशमेवोपादानत्वमभिप्रेत्य "इदं सर्वं यदयमात्मा" "सच्च त्यच्चाभवत्" ( तै.२.६) "बहु स्यां प्रजायेय" ( तै. २-६) इत्यादिश्रुतिषु ब्रह्मप्रपञ्चोस्तादात्म्यव्यपदेशः । घटः सन् घटो भाति, घट इष्ट इत्यादिलौकिकव्यपदेशोऽपि सच्चिदानन्दरुपब्रह्मैक्याध्यासात् । (वेदांत परिभाषा, विषयपरिच्छेदः)
भावार्थ :- समस्त जगत का उपादानकारणत्व ही ब्रह्म का लक्षण हैं।
शंका :- चेतन ब्रह्म में जड प्रपंच का उपादानकारणत्व किस तरह से संभवित बन सकता हैं ? और यह उपादानकारणत्व माया में भी होने के कारण अतिव्याप्ति भी आयेगी न?
समाधान :- आपकी शंका योग्य नहीं हैं। क्योंकि, यहाँ "उपादान" शब्द से जगद्रुप अध्यास (भ्रम)
(१) ब्रह्मावसानोऽयं प्रतिषेधः ब्रह्मणो नाभावसानः (ब्र.सू.शा.भा.३/२/२२) (२) वाङ्मनसातीतत्वमपि ब्रह्मणो नाभावाभिप्रायेणाभिधायते । (ब्र.सू.शा.भा. ३/२/२२)
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