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षड्दर्शन समुच्चय भाग -१, परिशिष्ट-१, वेदांतदर्शन
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परिशिष्ट विभाग
परिशिष्ट-१, वेदांत दर्शन प्रस्तुत ग्रंथ में देवता, प्रमाण और तत्त्व : ये तीन प्रकार से तत् तत् दर्शन का निरुपण किया गया हैं। साथ साथ तत् तत् दर्शन के अन्य सिद्धांतो का भी प्रतिपादन किया गया हैं । वेदांत-दर्शन का प्रतिपादन प्रस्तुत ग्रंथमें किया नहीं हैं। इसलिए यहाँ पर वेदांत दर्शन के ग्रंथो के आधार से संक्षेप में वेदांतदर्शन का निरुपण किया जाता हैं।
पूर्वमीमांसा दर्शन की तरह वेदांत दर्शन में भी कोई देवता नहीं हैं । सगुणब्रह्म (ब्रह्म) ही देव हैं। अर्थात् माया से सहित बनकर ही निर्गुण ब्रह्म सगुण परमेश्वर कहा जाता हैं । विश्व की सृष्टि. स्थिति-लय का एकमेव कारण यह सगुणब्रह्म हैं । वही इस सांसारिक प्रपंच का सर्जनहार,नियन्ता और हन्ता हैं।
पूर्वमीमांसा दर्शन की तरह वेदांत दर्शन में भी प्रमाण की संख्या छः हैं। (१) प्रत्यक्ष, (२) अनुमान, (३) शब्द, (४) उपमान, (५) अर्थापत्ति, और (६) अनुपलब्धि (अभाव): ये छः प्रमाणो का स्वरुप आगे बताया जायेगा।
वेदांत दर्शन में एक "ब्रह्म" ही तत्त्व हैं। उसके सिवा समस्त जगत (सर्व पदार्थ) मिथ्या हैं। ब्रह्म की ही एकमात्र सत्ता का स्वीकार और ब्रह्म से अतिरिक्त सर्व पदार्थो की सत्ता का अस्वीकार करने के कारण यह दर्शन "अद्वैतवादी" दर्शन के रुपमें प्रसिद्ध हैं।
ब्रह्मका स्वरुप :- इस जगत में एक मात्र "ब्रह्म" ही तत्त्व हैं। "ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मेव नापर :।" इस श्लोकार्ध द्वारा भी ब्रह्म को ही सत्य तत्त्व के रुप में प्रतिपादित किया हैं। उसके सिवा सामने देखा जाता जगत मिथ्या हैं । तदुपरांत जीव भी ब्रह्म ही हैं । ब्रह्म से भिन्न नहीं हैं।
वेदांतसार ग्रंथमें मंगल श्लोक में ब्रह्म का स्वरुप बताते हुए उसको अखंड, सच्चिदानंद; अवाङ्मनसागोचर और अखिलाधार कहा गया हैं । ब्रह्म अखंड हैं। उसमें कोइ खंड नहीं हैं, ब्रह्म सावयव नहीं हैं। और ब्रह्म निरवयव होने से निराकार, अनश्वर और निविकार हैं। श्री नृसिंह सरस्वती के मतानुसार अखंड अर्थात् किसी भी प्रकार के सजातीय, विजातीय और स्वगत भेदो से मुक्त यह ब्रह्म तत्त्व हैं । (जैसे कि, वृक्ष का दूसरे वृक्ष के साथ का भेद सजातीय हैं, दूसरे मकान आदि पदार्थो के साथ का भेद विजातीय हैं और अपने अंदर रहे हुए शाखा, पत्तोके साथ का भेद स्वगत भेद हैं ।) ब्रह्म सच्चिदानंद हैं । यह ब्रह्म सत् अर्थात् त्रिकालाबाधित, अनश्वर हैं। चित् अर्थात् चैतन्यस्वरुप हैं और आनंद स्वरुप हैं। आनंद सुखदुःख-विलक्षण हैं
और अनुभव से ही समजा जा सकता हैं। ब्रह्म अवाङ्मनगोचर हैं। अर्थात् ब्रह्म को वाणी से व्यक्त नहीं किया जा सकता, वैसे मन से सोचा नहीं जा सकता । वह इन्द्रियातीत हैं । यहाँ ब्रह्म के लिए इस्तेमाल कीये गये जो सच्चिदानंदादि विशेषण हैं, वह केवल लिंगरुप या चिह्नरुप हैं। उससे केवल उसकी झाँखी होती हैं।
ब्रह्म अखिलाधार हैं। जैसे भ्रान्ति के समय रज्जु सर्प का आधार होता हैं, वैसे इस समग्र सृष्टि की प्रतीति का आधार ब्रह्म हैं । श्रीशंकराचार्यकृत सर्ववेदांत-सिद्धान्तसार ग्रंथ में भी मंगल श्लोक में ब्रह्म के लिए पूर्वोक्त ही विशेषण इस्तेमाल किये गये हैं।
___ श्रीशंकराचार्यजी ने ब्रह्मसूत्र के शारिरिक भाष्य में ब्रह्म का स्वरुप वर्णन करते हुए कहा हैं कि, "अस्ति तावत् ब्रह्मशुद्धप्रबुद्धमुक्तस्वभावम् -(ब्र.सू.शा.भा. १-१-१)"
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