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षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, सांख्यदर्शन का विशेषार्थ
जाग्रत अवस्था में भी भोजन से तृप्ति नहीं होनी चाहिए। यदि ऐसा कहोंगे कि प्रतीति होती है, इसलिए बाह्यपदार्थ गलत है, तो विज्ञान की भी प्रतीति होने से उसको भी गलत क्यों नहीं मानते है ? यदि विज्ञान को भी गलत मानोंगे तो सर्व शून्य ही होगा। इसलिए बाह्य पदार्थो का अपलाप नहीं किया जा सकता।
पूर्वपक्ष (शून्यवादि बौद्ध): शून्य ही तत्त्व है। पदार्थ नष्ट होता है। विनाश की वस्तुधर्मता होने से अर्थात् पदार्थ नष्ट होता है, इसलिए सर्वपदार्थ मिथ्या है। नाश होना यह वस्तु का धर्म है, जब कि नाश यह वस्तु का स्वभाव है, तो वे सत्य किस तरह से हो सकता है ? इसलिए शून्य ही एक तत्त्व है।
उत्तरपक्ष (सांख्य ) : अज्ञानी मनुष्यो का यह केवल मिथ्यावाद ही है। कहने का मतलब यह है कि, चाहे कार्यद्रव्य का नाश हो, इसलिए वह उसका स्वभाव नहीं कहा जा सकता । प्रत्येक वस्तु हमेशां नाश ही नहीं पाती रहती । एक वस्तु जो क्षण में बनती है, उसी क्षण में उसका नाश माना जाये, तो वस्तु कभी भी नहीं बन सकेगी? परिणाम स्वरुप संसार में किसी भी प्रकार की प्रवृत्ति ही नहीं हो सकती। इसलिए नाश क्वचित् और कदाचित् होता है। इसलिए नाश नैमित्तिक है, स्वाभाविक नहीं है।
सांख्यशास्त्रकार के मत में कोई भी पदार्थ नष्ट होता ही नहीं है "धननाश हुआ" उसका अर्थ यह है कि वह कारण में अव्यक्तरुप हुआ। यदि सर्वशून्यता ही मानो तो शून्यता सिद्ध करने के लिए प्रमाण चाहिए। और प्रमाण को अशून्य मानने से सर्व शून्यतावाद विफल होगा। विना प्रमाण शून्यता सिद्ध मानोंगे तो बिना प्रमाण हमने माने हुए बाह्यपदार्थो को भी सिद्ध मानना पडेगा। उपरांत, बाह्यार्थ क्षणिकवाद में तथा क्षणिकविज्ञानवाद में जो दोष दीये है, वे सब इस शून्यवाद को लागू पडते है। शून्यता में प्रत्यभिज्ञा आदि कुछ नहीं हो सकता। इसलिए यह पक्ष भी त्याज्य है।
यदि आप दुःखनिवृत्ति को शून्यतारुप माने तो भी मोक्ष की सिद्धि नहीं होती । क्योंकि दु:खनिवृत्ति का आधार आत्मारुप कोई भी पदार्थ आपके मत में नहीं है। दुःख निवृत्ति को सुखरुप मानो तो भी मोक्ष की सिद्धि नहीं है। क्योंकि आपके मत में सुख जैसा कुछ नहीं है, इसलिए बौद्धमत में मोक्ष तथा बंधन की कोई व्यवस्था ही नहीं है।
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