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________________ ३३६ षड्दर्शन समुच्चय भाग -१, परिशिष्ट-१, वेदांतदर्शन ईश्वर के बारे में सोचे तो, वेदांत का परम और चरम तत्त्व एकमेव ब्रह्म हैं। परन्तु वह तो निर्गुण, निराकार हैं। इसलिए ही श्रीशंकराचार्यजी ने दो प्रकार के ब्रह्म की कल्पना की है। एक तो सर्वउपाधिविवर्जित ब्रह्म ही, जब कि, दूसरा नाम-रुप-विकार भेदोपाधि विशिष्ट ब्रह्म । श्रीशंकराचार्य ब्रह्मसूत्र के शांकरभाष्य में कहते हैं कि, "मूल तो ब्रह्म एक और निर्गुण है। परन्तु उपासना के लिए सगुण ब्रह्म का भी उपदेश दिया जाता हैं " "निर्गुणमपि सद्ब्रह्म नामरुपगतैर्गुणैः सगुणमुपासनार्थं तत्र तत्रोपदिश्यते । (ब्र. सू. शां. भा. १-२१४)। यह सगुण ब्रह्म वही ईश्वर है और वही जगत का कर्ता, नियन्ता और संहर्ता हैं। वेदांत परिभाषा में ईश्वर का स्वरुप बताते हुए कहा है कि, "मायावच्छिन्नं चैतन्यं परमेश्वरः । XXXXI स परमेश्वर एकोऽपि स्वोपाधिभूतमायानिष्ठ-सत्त्वरजस्तमोगुणभेदेन ब्रह्मविष्णुमहेश्वर इत्यादि शब्दवाच्यतां लभते । मायावच्छिन्न चैतन्य ईश्वर है। वह परमेश्वर एक होने पर भी स्वाधिकरणभूत मायानिष्ठ सत्त्व-रजस्-तमस् तीन गुणों के भेद से ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर ऐसे शब्दो की वाच्यता को प्राप्त करता है। अर्थात् ईश्वर एक होने पर भी मायारुप उपाधि के सत्त्वादि गुणो के अभिप्राय से अनेक हैं, ऐसा व्यपदेश किया जाता हैं । वेदांतसार १०) अनुसार विशुद्धसत्त्वप्रधान समष्टि अज्ञान से उपहित चैतन्य वही ईश्वर हैं । यह ईश्वर सर्वज्ञ, सर्वेश्वर, सर्वनियंता, अव्यक्त,अन्तर्यामी और जगत के कारण कहे गये है। ईश्वर समष्टि (११)अज्ञान अर्थात् अज्ञान को प्रकाशित करनेवाले होने से सर्वज्ञ हैं। सभी को कर्मानुसार फल देनेवाले होने से सर्वेश्वर हैं। प्रत्येक को कर्म में प्रेरणा देनेवाले होने से अन्तर्यामी हैं। किसी भी प्रमाण से ग्रहण किया न जा सके ऐसे अव्यक्त हैं। ईश्वर की उपाधिरुप अज्ञान की समष्टि के अलग-अलग नाम वेदांतसार में बताये हैं । ये नाम अलगअलग गुण या कार्य को लेकर पड़े हुए हैं । वह सूक्ष्म शरीर और स्थूल शरीर का कारण होने से (१२) "कारणशरीर" कहा जाता हैं । अज्ञान की समष्टि से उपहित चैतन्य में आनन्द की प्रचुरता होने से और वह अज्ञान समष्टि को एक कोश की तरह ढकती होने से उसको "आनंदमय कोष" कहा जाता हैं। समष्टि अज्ञान में सभी प्रकार की सृष्टि का लय होता होने से उसको सुषुप्ति कहा जाता हैं। और यही प्रलयावस्था हैं। इसी बात को श्रीशंकराचार्यकृत( १३) सर्ववेदान्तसिद्धान्त सार-संग्रह में स्पष्ट करते हुए बताया है कि " यह मायारुप उपाधिवाला चैतन्य ब्रह्म के आभासवाला सत्त्वगुण की अधिकता से युक्त, सर्वज्ञत्वादि गुणो से संपन्न, जगत की उत्पत्ति- स्थिति और नाश का कारण है। वही अव्याकृत, अव्यक्त और ईश्वर भी कहा जाता है। वह सर्वशक्तियों और गुणो से युक्त हैं। वह सर्व ज्ञान का प्रकाशक है, वह स्वतंत्र हैं। वे सत्यसंकल्प और ___(१०) इयं समष्टिस्तूत्कृष्टोपाधितया विशुद्धसत्त्वप्रधाना । "एतदुपहितं चैतन्यं सर्वज्ञत्वसर्वेश्वरत्व-सर्वनियन्तृत्वादिगुणकमव्यक्तमन्तर्यामी जगत्कारणमीश्वर इति च व्यपदिश्यते सकलज्ञानाभासकत्वात् यः सर्वज्ञः सर्ववित्" इति श्रुतेः । (वेदान्तसार) अध्याय २/३८) ईश्वरस्येयं समष्टिरखिलत्वात् कारणशरीरमानन्दप्रचुरत्वात्कोशवदाच्छादकत्वाच्चानन्दमयकोशः सर्वोपरमत्वात् सुषुप्तिरज्ञ एव स्थूलसूक्ष्मप्रपञ्चलयस्थानमिति चोच्यते । (११) अज्ञान के दो भेद आगे बतायें जायेगें। (१२) वेदांत में कारणशरीर, सूक्ष्मशरीर और स्थूलशरीर ऐसे शरीर के तीन प्रकार माने गये हैं। (१३) मायोपहितचैतन्यं साभासं सत्त्वबृंहितम् । सर्वज्ञत्वादिगुणकं सृष्टिस्थित्यंतकारणम् ॥३१०।। अव्याकृतं तदव्यक्तमीश इत्यपि गीयते । सर्वशक्तिगुणोपेतः सर्वज्ञानावभासकः ॥३११॥ स्वतंत्रः सत्यसंकल्पः सत्यकामः स ईश्वरः । तस्यैतस्य महाविष्णोर्महाशक्तेर्महीयसः ॥३१२॥ सर्वज्ञत्वेश्वरत्वादिकारणत्वान्मनीषिणः । कारणं वपुरित्याहुः समष्टिं सत्त्वबृंहितम् ॥३१३॥ आनंदप्रचुरत्वेन साधकत्वेन कोशवत् । सैषानन्दमयः कोश इतीशस्य निगद्यते ॥३१४।। सर्वोपरमहेतुत्वात्सुषुप्तिस्थानमिष्यते । प्राकृतः प्रलयो यत्र श्राव्यते श्रुतिभिर्मुहुः ॥३१५॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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