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षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, सांख्यदर्शन का विशेषार्थ
पूर्वपक्ष (बौद्ध): जो सत् होता है वह अर्थक्रियाकारि होता ही है। जो अर्थक्रियाकारि हो वह या तो क्रम से सभी क्रियाएं करता है या तो एकसाथ सभी क्रियाओ को करता है। अब यदि सत् एकसाथ सभी क्रियाएँ कर ले तो वह उत्तरक्षण में क्रिया न करने से सत् नहीं रह सकेगा। और यदि क्रम से क्रियाएं करे तो जो प्रकारवाला होके पूर्वक्रिया करे, उसी प्रकारवाले से उत्तरक्रिया नहीं हो सकेगी। इसलिए उसमें अलग प्रकार अवश्य आना चाहीए।
और अलग प्रकार आने से उस सत् में अवश्य परिवर्तन होगा और इसलिए वह क्षणिक बनेगा । इस अनुसार से विचार करने से संसार में सभी वस्तु क्षणिक ही लगती है। कुछ भी स्थिर नहीं है। आत्मा भी स्थिर नहीं है और बंधन भी स्थिर नहीं है।
सांख्य : आज देखी हुई वस्तु को जब दो दिन के बाद देखते है, तब हम कहते है कि "यह वही वस्तु है, कि जो मैंने दो दिन पहले देखी थी" ऐसा जो ज्ञान होता है उसको प्रत्यभिज्ञा कहा जाता है। वस्तु को क्षणिक मानने से प्रत्यभिज्ञा नहीं हो सकेगी। स्थिरवस्तु में ही प्रत्यभिज्ञा हो सकती है। प्रत्यभिज्ञारुप हेतु से क्षणिकवाद का खंडन होता है और स्थिरवाद की सिद्धि होती है। __ प्रथम क्षण में देखी हुई वस्तु दूसरी क्षण में नष्ट होती है और तीसरी क्षण में तत्सदृश दूसरी वस्तु उत्पन्न होती है, तो फिर चौथी क्षण में "यह वही वस्तु है, कि जो मैने पहली क्षण में देखी थी," ऐसी प्रत्यभिज्ञा किस तरह से हो सकेगी? अर्थात् हो ही नहीं सकती। इसलिए क्षणिकवाद असत्य है।
उपरांत अनुमान से भी क्षणिकवाद असत्य सिद्ध होता है। जैसे कि, एक वस्तु प्रथम क्षण में नष्ट होती है तो दूसरी क्षण में उस नष्ट हुई वस्तु से दूसरी वस्तु किस तरह से बनेगी? भाव का कारण अभाव कभी भी नहीं हो सकता तथा एक क्षणिक वस्तु दूसरी क्षणिक वस्तु का कारण कभी भी नहीं हो सकता, इसलिए क्षणिकवाद मानने में कोई भी प्रमाण नहीं है। ___ उपरांत, क्षणिकता सिद्ध करने के लिए कोई दृष्टांत भी मिलता नहीं है। सत्पदार्थ का कभी भी नाश होता ही नहीं है, तो फिर क्षणिकता सत्पदार्थ में किस तरह से आ सकेगी? क्योंकि "नासते विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः" । अर्थात् अभाव का कभी भी भाव होता नहीं और भाव का कभी भी अभाव होता नहीं है। ___ क्षणिकवादि बौद्धो के मत में कार्यकारणभाव नहीं बन सकता है। वह इस अनुसार से-दुनिया में जो कार्यकारणभाव प्रसिद्ध है, उसको आप किस तरह से मानते है ? क्या एकसाथ उत्पन्न हुए कार्यकारणभाव मानते हो या क्रम से उत्पन्न हुए पदार्थो का कार्यकारणभाव मानते हो? यदि हम एकसाथ उत्पन्न हुए पदार्थो का कार्यकारणभाव मानते है, ऐसा कहोंगे तो वह नहीं बन सकेगा, क्योंकि गाय को एकसाथ दो सिंग उत्पन्न होते है। उसमें से कौन से सिंग को कौन से सिंग का कारण मानते हो? अर्थात् किसी को किसीका कारण या कार्य नहीं मान सकते हो क्योंकि वे दोनो एकसाथ ही उत्पन्न हुए है। कार्य की अपेक्षा कारण पहले से ही हमेशा विद्यमान होना चाहिए। अलंकार का कारण सोना या रुपा पहले से ही विद्यमान हो तो ही सुनार अलंकार बनाने के लिए तैयार होता है। इसके उपर से सिद्ध होता है कि, कारण और कार्य की उत्पत्ति एक साथ नहीं होती है।
उपरांत, बौद्ध मत में 'क्रमिक उत्पन्न हुए पदार्थो का भी कार्यकारणभाव नहीं बन सकता है । वह इस अनुसार से है-पूर्व (पहले) क्षणिकवस्तु का जिस वक्त नाश होता है उस वक्त उत्तर क्षणिकवस्तु विद्यमान नहीं होती है। इसलिए पूर्वक्षण और उत्तरक्षण का संबंध नहीं हो सकता है। इसलिए कार्यकारणभाव नहीं बन सकता । बौद्धो के क्षणिकवाद अनुसार से एक वस्तु नष्ट होने के बाद दूसरी वस्तु उत्पन्न होती है। अब जो वस्तु नष्ट हुई है, उसका उत्तरवस्तु के साथ संबंध किस तरह से हो सकेगा? यदि सूतर जल जाये अथवा किसी भी तरह से नष्ट हो जाये, तो उसमें से कपडा कभी भी नहीं बन सकता । अभाव में से भाव की उत्पत्ति कभी भी किसी ने देखी नहीं है। इसलिए बौद्धो के मत अनुसार क्रमिकवस्तुओ में भी कार्यकारणभाव नहीं बन सकता है।
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