________________
षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, सांख्यदर्शन का विशेषार्थ
३२३
उत्तरपक्ष (सांख्य ): चाहे आप परिमित पदार्थो को न मानो, फिर भी जो पदार्थ मानने में कोई प्रमाण या युक्ति नहीं है, उसका स्वीकार नहीं किया जा सकता। यदि आप प्रमाणशून्य पदार्थ का स्वीकार करोंगे तो वह अप्रमाणिक होने से आप बालक और पागल ईन्सान के जैसे माने जाओंगे।
क्षणिकविज्ञानवादि बौद्ध के मत में वासना भी बंधन का कारण नहीं हो सकती, वह समजाया जाता है।
प्रवाहरुप से अनादि जो विषयो की वासना है, वह भी बौद्धो के मत में बंधन का कारण नहीं हो सकेगी, क्योंकि उनके मत में वासना भी क्षणिक है।
अब वासना को बंधन का कारण न होने में सांख्य हेतु देता है। जिसका प्रतिबिंब गिराना हो वह और जिसमें प्रतिबिंब गिराना हो वह, ये दोनो यदि एक ही स्थान पे हो तो ही प्रतिबिंब पड़ सकता है। शरीर के अंदर रही हई क्षणिकविज्ञान की परंपरा में बाहरके विषयो का प्रतिबिंब नही पड सकेगा। इसलिए बौद्धमत के अनुसार से वासना बंधन का कारण नहीं हो सकती।
उपरांत यदि आत्मा को व्यापक मानकर अंदर और बाहर सर्वत्र है, ऐसा मानो तो भी सुख, दुःख की व्यवस्था नहीं हो सकेगी, क्योंकि जो क्षणिकविज्ञान में प्रतिबिंब पडता है वह दूसरी क्षण में वासना के साथ ही नाश हो जाता है, तो अब वासना के बिना दुःख की व्यवस्था किस तरह से हो सकेगी? ___ बौद्ध : क्षणिकविज्ञानो में ऐसा अदृष्टकारण है, कि जो एकविज्ञान में से दूसरे में और दूसरे में से तीसरे में जाता है और उसको लेकर ही सुखदुःख की व्यवस्था होती है।
सांख्य : अदृष्ट कारण मानने से भी सुखदुःख की व्यवस्था नहीं हो सकेगी, क्योंकि पूर्वविज्ञान में से उत्तरविज्ञान में आपने माना हुआ अदृष्टकारण तब ही जा सकेगा कि, जब पूर्वभावि और पश्चाद्भावि दो विज्ञान एक साथ एक ही समय में रहे, परन्तु यह आपके मत में होनेवाला नहीं है। क्योंकि आप एकक्षण से ज्यादा स्थिति किसी की मानते ही नहीं है, दोनो एक समय में एकसाथ एकठे न हो, तब तक एकदूसरे को उपकार नहीं कर सकते है। सफेद वस्त्रको यदि लाल रंग देना हो तो रंगद्रव्य और वस्त्र दोनो एक ही वक्त और एक ही स्थान पे संयुक्त हो, तो ही वस्त्र को रंग दिया जा सकेगा, अन्यथा नहीं । दूसरा दोष यह है कि, जिसको आप अदृष्टकारण मानते है उसको भी क्षणिकसिद्धांत के भंग के भय से क्षणिक ही मानेंगे, तो वह स्थिर न होने से सुख-दुःख किस तरह से दे सकेगा? और यदि स्थिर मानोंगे तो प्रतिज्ञा का भंग होगा, इसलिए क्षणिकवाद में उपकार्योपकारक भाव सिद्ध नहीं होता और उस कारण से सुख-दःख की व्यवस्था भी नहीं हो सकती।
बौद्ध : जैसे आपके मत में गर्भ में पुत्र न होने पर भी मातापिता गर्भाधानादि संस्कार करते है और उसका फल भावि पुत्र को मिलता है, वैसे हमारे मत में भी भाविविज्ञान का पूर्वविज्ञान के साथ कुछ भी संबंध न होने पर भी पूर्वविज्ञान उत्तरविज्ञान के फल उत्पन्न कर सकेगा। और उपकार्योपकारक भाव भी बन सकेगा।
सांख्य : आपकी बात ठीक नहीं है। क्योंकि गर्भ में स्थिर एक आत्मा है, कि जो गर्भाधान आदि संस्कारो का फल भुगतता है । यदि गर्भ में आत्मा न हो तो उसमें जो शरीर की रचना होती है वह नहि हो सकेगी, केवल गर्भाधानसंस्कार के वक्त पुत्र का अस्तित्व नहीं है फिर भी उस वक्त माता के शुभ अथवा अशुभ विचार होते है, माता में स्थिर होने से जब गर्भ में पुत्रात्मा आता है तब उस विचारो का संक्रमण होता है। हमारे मत में आत्मा अस्थिर नहीं है । तथा जो संस्कार करता है वह भी अस्थिर नहीं है। इसलिए हमारे उदाहरण से आप अपने क्षणिककार्यों में उपकार्योकारकभाव को सिद्ध नहीं कर सकेंगे। इसके उपर से सिद्ध होता है कि क्षणिकवाद में वासना बंधन का कारण नहीं हो सकती है।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org