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________________ ३२२ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, सांख्यदर्शन का विशेषार्थ प्रकृति के साथ जो संयोग है, वही संयोग के अधीन होके प्रकृति बंधनकारक होती है, साक्षात् नहीं अर्थात् - अज्ञानमूलक संयोग ही बंधन का मुख्य कारण है। प्रकृति तो गौण पड जाती है। यदि प्रकृति किसीकी भी अपेक्षा के सिवा बंधनकारक हो तो वह सभी मुक्तात्माओ के साथ भी होने से उसको भी बद्ध करेंगी। और परिणाम से कोई भी मुक्त हो ही नहीं सकेगा। इसलिए प्रकृति साक्षात् बंधनकारक नहीं है। • अब बौद्धो ने माने हुए बंधन के कारण प्रामाणिक न होने से उनका खंडन सांख्यो ने किया है। बौद्धो में एक विज्ञानाद्वैत माननेवाला संप्रदाय है। उनका मानना है कि क्षणिक विज्ञानो की परंपरा ही सब जगत है। बाह्य जो सृष्टि दिखाई देती है वह असत्य है और प्रकृति जैसा कोई जड जगत का उपादानकारण नहीं है . आत्मा में जो बंधन है उसका कारण भी अविद्या ही है। उसका खंडन किया जाता है। "नाविद्यातोऽप्यवस्तुना बन्धायोगात् ॥१-२० सांख्यसूत्र ॥" अर्थात् अविद्या से भी बंधन नहीं हो सकता । अवस्तुरुप होने से उससे बंधन का योग नहीं हो सकेगा। __ अविद्या से भी बंधन नहीं हो सकता । क्योंकि उनके मत में विद्या = ज्ञान और अविद्या = ज्ञान का अभाव । अब जो अविद्या कि जो अभावस्वरुप है, वह बंधनकारक किस तरह से हो सकेगी? रस्सी में कदाचित् किसीको साँप और भल से उसका स्पर्श करे और वह ऐसा समजे कि मझ को साँप डंसा है। फिर भी उसको साँप का विष चढता नहीं है। क्योंकि उसके शरीर में साँप के विषका अभाव है। इसके उपर से समजा जा सकता है कि अभाव सुख या दुःख नहीं कर सकता। इसलिए अविद्या कि जो ज्ञान का अभाव है वह बंधनकारक नहीं हो सकेगा। उपरांत अविद्या को वस्तुरुप मानने में बौद्धो को सिद्धान्त की हानि होती है, क्योंकि उनका मानना है कि विज्ञान की एक समान परंपरा है, वही कार्यकारणात्मक सर्वजगत है। विज्ञानभिन्न कोई भी दूसरी वस्तु ही नहीं है, इसलिए सिद्धान्त की हानि के भय से वे अविद्या को वस्तुरुप नहीं मान सकते है। उपरांत क्षणिकविज्ञान और संततिवादि बौद्धो सदृशविज्ञानो की परंपरा मानने से ज्ञानका द्वैत तो स्वीकार करते है और उसको सजातीय द्वैत कहते है। परन्तु अविद्या को ज्ञानभिन्न भावरुप पदार्थ माने, तो उनको विजातीयद्वैत मानना पडेगा। क्योंकि ज्ञान और ज्ञानभिन्न भावरुप पदार्थ, ये दो सजातीयद्वैत नहीं कहे जाते । ज्ञान का सजातीय पदार्थ दूसरा ज्ञान हो सकेगा, ज्ञान से विलक्षण कोई दूसरा पदार्थ ज्ञान का सजातीय नहीं कहा जाता । इसलिए विजातीयद्वैत के भय से वे अविद्या को वस्तुस्वरुप नहीं मान सकेंगे। पूर्वपक्ष (बौद्ध): यदि अविद्या को सत् रुप या असत् रुप भी माना न जाये, यानी कि सत् और असत् रुप से अलग प्रकार की अविद्या है, ऐसा माना जाये तो अद्वैतद्वैतत्व दोष भी नहि आयेगा। इसलिए अविद्या सत् और असत् रुप से भंग नहीं होगी। और विजातीय तो अलग ही प्रकार की है और वही अविद्या बंधनकारक है, ऐसा माना जाये तो क्या दोष है ? उत्तरपक्ष (सांख्य) : सत् और असत् से विलक्षण कोई भी पदार्थ ही नहीं है। कुछ पदार्थ सत्रुप है और कुछ असत्रुप है। तीसरा कोई प्रकार ही नहीं लगता, कि जिस में अविद्या का समावेश किया जा सके, इसलिए ऐसी अविद्या मानने में कोई प्रमाण नहीं है। पूर्वपक्ष (बौद्ध): महर्षि कणाद जैसे छ: ही पदार्थ मानते है और महर्षि गौतम सोलह ही पदार्थ मानते है। वैसे हम परिमिति पदार्थवादि नहीं है। इसलिए हमारे मत में कोई ऐसा भी पदार्थ है कि, भाव और अभावरुप से भिन्न है । जगत् अनंत और विचित्र है। इसलिए ऐसे पदार्थ के होने में कोई संदेह नहीं है, वैसे असंभव भी नहीं है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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