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________________ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, सांख्यदर्शन का विशेषार्थ ३१७ भावार्थ : इस प्रकार (२५ सांख्य) तत्त्वों के अभ्यास से न (मैं क्रियावान्) हूं, न मेरा (भोक्तृत्व है), न मैं (कर्ता) हूं, इस प्रकार का सम्पूर्ण संशय भ्रम आदि से रहित होने से निर्मल एक मात्र ज्ञान उत्पन्न होता है। विशेषार्थ : सांख्यदर्शन में बताए गए पच्चीस तत्त्वों के निरन्तर चिन्तनपूर्वक अभ्यास से व्यक्ति को तीन प्रकार की अनुभूति होती है, जिसे कारिकाकार ने 'न अस्मि', 'न मे', 'न अहम्' के रुप में अत्यन्त संक्षेप में निर्दिष्ट किया है। प्रथम अनुभूति में साधक स्वयं का क्रियावान् न होना अनुभव करता है। द्वितीय में, वह स्वयं को भोक्ता न होना अनुभव करता है । तथा तृतीय में, उसे स्वयं को कर्ता न होने की अनुभूति होती है। ___ इस प्रकार सांख्यतत्त्वो के चिन्तन से साधक को स्वयं के कर्ता भोक्ता एवं क्रियावान् न होने का अनुभव होता है। जो ज्ञान का प्रथम सोपान है। इस स्थिति में उसकी सभी क्रियाएं निरपेक्ष होती है। इसी के पश्चात् साधक में संशय, भ्रम आदि से रहित होने के कारण विशुद्ध, केवल और सम्पूर्णज्ञान की उत्पत्ति होती है। इसी से उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है। तत्त्वसाक्षात्कार के स्वरूप एवं प्रकारों का उल्लेख करने के बाद ग्रन्थकार विवेक-ज्ञान के बाद की पुरुष एवं प्रकृति की स्थिति का कथन, अग्रिम कारिका में करते है। तेन निवृत्तप्रसवामर्थवशात् सप्तरुपविनिवृत्ताम् । प्रकृतिं पश्यति पुरुषः प्रेक्षकवदवस्थितः सुस्थः ॥६५॥ भावार्थ : उस (विशुद्ध तत्त्वज्ञान) के द्वारा स्थित हुआ तटस्थ पुरुष (विवेक ज्ञान रुप) प्रयोजन सम्पन्न होने के भोगापवर्ग रूप) प्रसव से निवृत्त (धर्म-अधर्म आदि) सात भावो से पूर्णतया निवत्त प्रकत्ति को (निरपेक्ष) द्रष्टा के समान देखता है। विशेषार्थ : सांख्य में प्रतिपादित तत्त्वों के निरन्तर अभ्यास से उत्पन्न विवेकज्ञान होने पर प्रकृति उस ज्ञान के प्रति अपने भोग एवं अपवर्गरूप दोनों प्रकार के प्रसव करना बन्द कर देती है। इसीलिए यहाँ प्रकृति के लिए 'निवृत्त प्रसवा' पद का प्रयोग हुआ है, क्योंकि भोग और अपवर्ग ही प्रकृति के प्रसव है। प्रकृति में स्थित बुद्धि के धर्म-अधर्मादि आठ रूपो में ज्ञानरूप भाव को छोडकर शेष सात-धर्म, अधर्म, अज्ञान, राग, वैराग्य, ऐश्वर्य, अनैश्वर्य आदि भावों से भी प्रकृति पूर्णतया निवृत्त हो जाती है अपीतु ज्ञान की स्थिति में ये सात भाव भोग की सामग्री प्रस्तुत नहीं करते है। इस प्रकार तत्त्वज्ञान की अवस्था में विवेकज्ञान रूप प्रयोजन के सम्पन्न होने के कारण तटस्थभाव से स्थित पुरुष निरपेक्षद्रष्टा के समान 'निवृत्तप्रसवा' एवं 'सप्तरूपविनिवृत्ता' प्रकृति को देखता है । उसे प्रकृति में कोई आकर्षण प्रतीत नहीं होता, उसकी स्थिति पूर्णतया निरपेक्ष दर्शक के समान होती है। प्रकृति भी ऐसे तत्त्वज्ञानी पुरुष के प्रति अपने सम्पूर्ण व्यापारों को सिमेट लेती है। केवल एक शुद्ध सत्त्वप्रधान ज्ञानरुप भाव की स्थिति बनी रहती है। जिसकी अभिव्यञ्जना कारिका में प्रयुक्त सप्त पद के द्वारा हो रही है। अब तत्त्वज्ञान की अवस्था में पुरुष और प्रकृति की स्थिति को और अधिक स्पष्ट करते है - दृष्टा मयेत्युपेक्षक एको दृष्टाऽहमित्युपरमत्यन्या। सति संयोगेऽपि तयोः प्रयोजनं नास्ति सर्गस्य ॥६६॥ भावार्थ : “मैने उसको देख लिया है ।" ऐसा निश्चय होने से एक (पुरुष) उपेक्षावृत्ति धारण करता है। (और) "मैं दिखी गई हूँ (प्रकट हो चूकी हूँ)" ऐसा मानकर दूसरी (प्रकृति) विराम पाती है। फिर दोनो का संयोग हो तो भी सृष्टि (सर्ग) का प्रयोजन रहता नहीं है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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