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षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, सांख्यदर्शन का विशेषार्थ
विशेषार्थ : पुरुष और प्रकृति में स्वामी और सेवक का सम्बन्ध होता है, जिसका संकेत कारिका ६० में भी किया गया है। जिस प्रकार सेवक के द्वारा होनेवाली विजय और पराजय उसकी न होकर स्वामी की मानी जाती है। इसे औपचारिक प्रयोग भी कहा जा सकता है। जबकि वस्तुस्थिति इसके ठीक विपरीत होती है अर्थात् वह जय अथवा पराजय सेवकों की होती है।
ठीक इसी प्रकार न किसी पुरुष का बन्धन होता है, न मोक्ष और न ही कोई पुरुष जन्म-मरणरुप संसरण को प्राप्त करता है, अपितु अनेक पुरुषों का आश्रय लिए हुए त्रिगुणात्मिका प्रकृति का ही बन्धन, मोक्ष एवं सूक्ष्मशरीर के रूप में लोक लोकान्तर में, अनेक योनियों में संसरण होता है।
पुरुष तो निर्गुण, निर्विकार, एवं निष्क्रिय होता है। अतः उसमें बन्धनरुप विकार सम्भव नहीं है । साथ ही उसके निष्क्रिय होने के कारण जन्म, मरणरूप संसरण भी नहीं हो सकता एवं जिसका बन्धन ही सम्भव नहीं है, उसका मोक्ष कैसे हो सकता है। इसलिए बन्धन, मोक्ष और संसरण केवल प्रकृति का होता है, पुरुष का नहीं।
सांख्यशास्त्र के अनुसार प्रकृति से अट्ठारह तत्त्वों से निर्मित सूक्ष्मशरीर की उत्पत्ति होती है, जिसमें स्थित महत्त्वपूर्णतत्त्व बुद्धि के धर्म अधर्म आदि भावों के कारण इसका बन्धन, संसरण होता है तथा इसी के एक भाव ज्ञान से इसे मुक्ति मिलती है। पुरुष के उपर तो इनका अध्यारोप मात्र होता है। अब बंधन और मोक्ष का स्वरुप अगली कारिका में बताते है।
रुपैः सप्तभिरेव तु बध्नात्यात्मानमात्मना प्रकृतिः ।
सैव च पुरुषार्थं प्रति विमोचयत्येकरुपेण ॥१३॥ भावार्थ : अपने सात रुप (ज्ञान के सिवा सात भावो के) के द्वारा प्रकृति स्वयं ही अपने को बांधती है और वही (प्रकृति) पुरुष के लिए एकरुप से (= ज्ञान से) (अपने को) छोडती है।
ज्ञान के सिवा सात बंधन के कारण है। और ज्ञान मोक्ष का कारण है।
व्याख्या : बुद्धि के आठ भावों - धर्म-अधर्म, ज्ञान-अज्ञान, वैराग्य-राग, ऐश्वर्य-अनैश्वर्य का तेईसवीं कारिका में विस्तार से विवेचन किया गया है। इनमें से ज्ञान को छोडकर सात भावों के द्वारा प्रकृति स्वयं ही पुरुष के साथ अपने को बांधती है। इस प्रकार प्रकृति के बन्धन के ये हेतु भी प्रकृति के ही है। यह बन्धन वास्तव में पुरुष का नहीं, अपितु सूक्ष्मशरीर के रूप में प्रकृति का ही होता है। जिसका उल्लेख पूर्व कारिका में किया गया है।
उक्त आठ भावों में ज्ञानरुप एक भाव विवेक-ख्याति द्वारा प्रकृति का मुक्ति प्रदान करता है। पुरुष को उसके वास्तविकस्वरूप कैवल्य की प्रतीति एकमात्र ज्ञान के द्वारा होती है, जो प्रकृति का एक ही भाव है। इसीलिए कारिका के उत्तरार्द्ध में कहा गया - 'यह प्रकृति अपने ज्ञान नामक भाव से पुरुष के लिए स्वयं को निवृत्त कर लेती है।' ___ इस प्रकार अनादिकाल से होनेवाले पुरुष के उपर आरोपित अपने बन्धन का ज्ञान पुरुष को कराकर प्रकृति स्वयं को संकुचित कर लेती है। जो वस्तुतः प्रकृति की मुक्ति होती है, पुरुष की नहीं, किन्तु औपचारिक दृष्टि से इसका सम्बन्ध पुरुष के साथ स्थापित किया जाता है।
अवतरणिका : यहाँ तक सांख्यशास्त्र के पच्चीस तत्त्वों का विस्तृत विवेचन करने के पश्चात् प्रकृति एवं पुरुष की भिन्नता का सम्यक् प्रतिपादन किया गया। इस सबके निरन्तर अभ्यास से साधक को किस प्रकार की अनुभूति होती है, इसका प्रतिपादन करते हुए अग्रिम कारिका का उल्लेख करते है -
एवं तत्त्वाभ्यासान्नास्मि न मे नाऽहमित्यपरिशेषम् । अविपर्ययाद् विशुद्धं केवलमुत्पद्यते ज्ञानम् ॥६४॥
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