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________________ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, सांख्यदर्शन का विशेषार्थ ३१५ इस प्रकार प्रकृति सेवा, उपकार आदि श्रेष्ठगुणों से युक्त होती है। जबकि पुरुष इस प्रकार के गुणों से रहित होता है। ऐसा इस कारण होता है कि प्रकृति में तीन गुण (सत्त्व, रजस् और तमस्) होने से उपकार की भावना रहती है, क्योंकि दया, दाक्षिण्य आदि सत्त्वगुण के धर्म होते है। जब कि, पुरुष इन गुणों से रहित होता है। अत: उसके पास कुछ देने की परोपकार आदि की भावना का पूर्णतया अभाव होता है और न ही उसके पास भोग विलास की कोई सामग्री ही होती है, क्योंकि भोगविलास की सामग्री धर्म, अधर्म आदि बुद्धि के आठ भावों के परिणाम हैं, जिनका सम्बन्ध केवल प्रकृति से होता है, पुरुष से नहीं। इस प्रकार त्रिगुणात्मिका एवं उपकारिणी प्रकृति, विशुद्ध परोपकार की भावना से निर्गुण एवं प्रत्युकार की भावना से रहित पुरुष के भोग एवं अपवर्ग की सिद्धि हेतु सृष्टिरुप सामग्री का सम्पादन करती है, उसे जुटाती है। अवतरणिका : इस प्रकार प्रकृति के नि:स्वार्थभाव से पुरुष के प्रति उसके भोगावपर्ग के लिए जानेवाले उपकारीभाव का कथन करने के पश्चात्, उसकी सुकुमारता आदि गुणों का कथन करने के लिए पुरुष के अपवर्ग की स्थिति में प्रकृति द्वारा किए जानेवाले आचरण का प्रतिपादन करने हेतु अग्रिम कारिका का अवतरण करते है प्रकृतेः सुकुमारतरं न किञ्चिदस्तीति ने मतिर्भवति । या दृष्टास्मीति पुनर्न दर्शनमुपैति पुरुषस्य ॥११॥ भावार्थ : प्रकृति से ज्यादा सुकुमार अन्य कोई भी नहीं है, ऐसा मेरा मत है। (श्री ईश्वरकृष्ण आचार्य का मत है) में (पूर्ण तरह से) दिखी गई हुँ', ऐसा लगते ही वह फिरसे पुरुष की दृष्टि में नही आती है। विशेषार्थ : ज्ञानप्राप्ति की स्थिति में पुरुष द्वारा प्रकृति को भिन्नरुप में देखे जाने पर प्रकृति उस ज्ञानीपुरुष के लिए अपने सृष्टिरूप प्रपञ्च का विस्तार नहीं करती है। इतना ही नहीं वह अत्यन्त कोमल लज्जाशील कुलवधू के समान स्वयं को उस ज्ञान पुरुष की दृष्टि से भी बचाती है। उसे वह परपुरुष के समान मानती है तथा उसके समाने जाने से भी कतराती है। प्रकृति के इस प्रकार के आचरण के कारण ग्रन्थकार कहते है कि मेरे मत में ज्ञानावस्था में प्रकृति से बढकर अन्य कोई भी स्त्री सुकुमार कहलाने की अधिकारिणी नहीं है। क्योंकि इस स्थिति में यह एक बार पुरुष की दृष्टि में पड़ने पर उसके द्वारा देखे जाने पर उसके सामने फिर से जाने का उस कुलांगना के समान साहस नहीं करती, जो अत्यन्त शीलवती हो, जिसे सूर्य की किरणें भी न देख पायी हों, किन्तु असावधानी वश किसी परपुरुष ने उसे उस समय देख लिया हो, जब वह स्नान कर रही हो। तो वह उस पुरुष की दृष्टि से कतराती है, उसके सामने भी नहीं आती उसकी दृष्टि बचाकर निकल जाती है। ___ ठीक यही स्थिति पुरुष के विवेकज्ञान होने पर प्रकृति की उस पुरुष के प्रति होती है, क्योंकि उसके विषय में वह विचार करती है कि इसने तो मुझे देख लिया है, पहचान लिया है। अतः वह उसके सामने फिर आने से, अपने सृष्टिरूप प्रपञ्च को फैलाने से कतराती है। इसी दृष्टि से ग्रन्थकार ने प्रकृति को सुकुमारतरा कहा है। अवतरणिका : अभी तक वर्णित कारिकाओं में ग्रन्थकार ने औपचारिक दृष्टि से पुरुष के बन्धन आदि का कथन किया था, किन्तु अब तक स्थिति स्पष्ट होने के कारण वस्तुस्थिति से अवगत कराते हुए बंधन, संसरण और मोक्ष के सम्बन्ध में स्पष्टतया कारिका का अवतरण करते है - तस्मान्न बध्यतेऽद्धा न मुच्यते नापि संसरति कश्चित् । संसरति बध्यते मुच्यते च नानाश्रया प्रकृतिः ॥६२॥ भावार्थ : इसलिए वास्तव में तो कोई भी (पुरुष) ना तो बंधन पाता है या ना तो मोक्ष पाता है या ना तो संसार पाता है। किन्तु विविध प्रकार के आश्रयोवाली प्रकृति ही बंधन ग्रस्त होती है, मोक्ष पाती है या संसरण करती है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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