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________________ ३१४ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, सांख्यदर्शन का विशेषार्थ होती है और हम रुककर उस विषय में जानने का भरचक प्रयास करते है। अतः हमारी यह प्रवृत्ति उत्सुकता की निवृत्ति के लिए कही जाएगी। उन कार्यों को करने पर उत्सुकता या इच्छा भी स्वतः निवृत्त हो जाती है। ठीक इसी प्रकार पुरुष के मोक्ष के लिए प्रकृति में स्वाभाविक उत्सुकता या इच्छा रहती है। अतः इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए वह इसके साधनभूत सृष्टिकार्य में प्रवृत्त होती है तथा इस प्रयोजन की सिद्धि के बाद स्वतः ही निवृत्ति भी हो जाती है। अतः पुरुष के मोक्ष की इच्छा प्रकृति का स्वभाव है, स्वाभाविक प्रवृत्ति है, किसी के द्वारा प्रेरित नहीं। ___ यहाँ तक कारिकाकारने पुरुषार्थ ही प्रकृति की प्रवृत्ति का मूल कारण है, इसका प्रतिपादन किया । पुनः सृष्टिरुप कार्य में प्रवृत्त इसकी स्वतः निवृत्ति का सोदाहरण कथन करते हुए अग्रिम कारिका का अवतरण करते है - रङ्गस्य दर्शयित्वा निवर्तते नर्तकी यथानृत्यात् । पुरुषस्य तथाऽत्मानं प्रकाश्य विनिवर्तते प्रकृतिः ॥५९॥ भावार्थ : जैसे नर्तकी रंगभूमि के उपर अपनी कला बता के नृत्य में से निवृत्त होती है। वैसे प्रकृति पुरुष के पास अपने को प्रकट करके निवृत्त होती है। विशेषार्थ : जिस प्रकार नृत्यांगना रङ्गशाला स्थित दर्शकों के समक्ष मनोयोग से अपना नृत्य प्रस्तुत करती है और नृत्य के पश्चात् उन्हीं दर्शको के सामने पुनः नृत्य करने में उसे कोई रुचि नहीं रहती अर्थात् उन दर्शकों के प्रति वह विरक्त हो जाती है। ठीक उसी प्रकार नत्यांगनारूप प्रकति का सष्टि-प्रक्रियारुप नत्य केवल उन पुरुषों के लिए होता है, जो प्रकति के स्वरुप को अज्ञानवश देख नहीं पाते है। किन्तु जो पुरुष उसका उपभोग करके विवेकज्ञान से उसके और अपने अन्तर को समझ लेता है। उसके प्रति यह प्रकृति अपने वास्तविकरूप को प्रदर्शित करके पूर्णतया विरक्त हो जाती है अर्थात् ऐसे विवेकज्ञानी के लिए उसके समक्ष प्रकृतिरूप नृत्यांगना अपना सृष्टिरुप नृत्य प्रस्तुत नहीं करती है। प्रकृति पुरुष के लिए भोगापवर्ग पूर्णतया निःस्वार्थभाव से सम्पादित करती है। अत: वह उपकारिणी है। जब कि, पुरुष प्रकृति के उपर कोई उपकार करता न होने से अनुपकारी-निर्गुण है। इस बात का अगली कारिका में प्रतिपादन करते हैं - नानाविधैपकारिण्यनुपकारिणः पुंसः। गुणवत्यगुणस्य सतस्तस्यार्थमपार्थकञ्चरति ॥६०॥ भावार्थ : गुणवाली और उपकार करनेवाली प्रकृति, निर्गुण और अनुपकारी ऐसे पुरुष के लिए अनेक प्रकार के उपायो के द्वारा निःस्वार्थभाव से कार्य करती है। विशेषार्थ : पुरुष और प्रकृति के स्वरुप एवं गुणों तथा प्रवृत्ति की व्याख्या करते हुए ग्रन्थकार कहते हैं कि प्रकति उपकारिणी और दयादाक्षिण्य आदि गणों से यक्त है। इस से विपरीत परुष अनपकारी और निर्गण होता है। सामान्यतया लोक में उपकार करनेवाले के प्रति प्रत्युपकार की भावना को श्रेष्ठ माना जाता है, किन्तु यहाँ उपकार करनेवाली, त्रिगुणात्मिका प्रकृति द्वारा अनेक उपायों द्वारा पुरुष का भोगापवर्ग सम्पादित किए जाने पर भी प्रत्युपकार की भावना से रहित, निर्गुण पुरुष द्वारा प्रकृति का कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं किया जाता । वस्तुतः सांख्य की प्रकृति इस प्रकार की दासी के समान होती है, जो अपनी पूरी योग्यता एवं क्षमता से, पूर्णतया निःस्वार्थभाव से, प्रत्युपकार की अपेक्षा के बिना, अपने गुण-रहित एवं कृतघ्न स्वामी की सेवा में लीन रहती है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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