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________________ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, सांख्यदर्शन का विशेषार्थ ३१३ प्रत्येक पुरुष के मोक्ष के लिए ही सम्पन्न करती है। अतः यह कार्य परार्थ अर्थात् दूसरे के लिए, पुरुष के लिए ही होता है। इसलिए प्रत्येक पुरुष के मोक्ष के लिए किया हुआ यह आरम्भ सृष्टिरूप कार्य अपने लिए किया गया (स्वार्थ) प्रतीत होता हुआ भी, वस्तुतः दूसरों के लिए (परार्थ), पुरुष के लिए ही होता है। __इस प्रकार महत् आदि अव्यक्त-अवस्था से लेकर स्थूलमहाभूतरूप व्यक्त अवस्था तक सम्पूर्ण प्रपञ्च एकमात्र प्रकृति द्वारा किया जाता है, किसी अन्य के द्वारा नहीं । यद्यपि यह कार्य प्रत्यक्षरूप से ऐसा प्रतीत होता है कि प्रकृति अपने लिए कर रही है, किन्तु वास्तव में ऐसा नहीं होता, अपितु यह उस प्रत्येक पुरुष को मोक्षरूपी अपवर्ग प्रदान करने के लिए किया जाता है, जो अनादिकाल से लिङ्गशरीर द्वारा आविष्ट रहता है। अतः प्रकृति का यह कार्य स्वार्थ नहीं, अपितु परार्थ अर्थात् दूसरे के लिए ही है। __ अचेतन होते हुए भी प्रकृति परोपकार की भावना से प्रेरित होकर निःस्वार्थभाव से पुरुष के लिए किस प्रकार कार्य करती है, इसका सोदाहरण प्रतिपादन करने के लिए ग्रंथकार आगे कहते है कि, वत्सविवृद्धिनिमित्तं क्षीरस्य यथा प्रवृत्तिरज्ञस्य। पुरुषविमोक्षनिमित्तं तथा प्रवृत्तिः प्रधानस्य ॥५७॥ भावार्थ : जिस प्रकार बछड़े के पोषण के लिए अचेतन दूध की (माता के स्तनो में) प्रवृत्ति होती है (ठीक) उसी प्रकार पुरुष को मोक्ष दिलाने के लिए (अचेतन) मूल, प्रकृति की प्रवृत्ति (होती है)। विशेषार्थ : कारिका में प्रयुक्त प्रधान पद का मूलप्रकृति के लिए प्रयोग हुआ है, जो जडात्मिका है, अचेतन है। इस अचेतन प्रकृति की परोपकार की भावना से पुरुष के मोक्ष की प्रवृत्ति कैसे सम्भव है, क्योंकि स्वार्थपरार्थ का विवेक तो चेतन का धर्म है, अचेतन का नहीं । इसी शंका के समाधान के लिए ग्रन्थकार दूध और बछड़े का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए कहते है कि - जिस प्रकार गाय के शरीर में स्थित दुध अचेनत होते हुए भी बछड़े के पोषण के लिए आवश्यकता पड़ने पर गाय के थनों में स्वतः आ जाता है और बछडे की आवश्यकता पूरी होने पर अर्थात् उसके बडा होने पर स्वतः ही थनों में आना बन्द हो जाते है। ठीक उसी प्रकार अचेनत होते हुए भी प्रकृति पुरुष के मोक्ष के लिए सृष्टिरुप कार्य में प्रवृत्ति होती है तथा उसका मोक्ष होने पर अपने आप ही उसके प्रति स्वयं को निवृत्ति भी कर लेती है। अतः हमारी बात में किसी प्रकार का विरोध नहीं है। यहाँ प्रयुक्त 'अज्ञ' पद का प्रयोग दूध की अचेतनता का कथन करने के लिए हुआ है, जिसका अन्वय उत्तरार्द्ध में प्रयुक्त 'प्रधानस्य' पद के साथ भी करना होगा। पूर्वोक्त बात को अन्य उदाहरण देकर अगली कारिका में स्पष्टीकरण करते है - औत्सुक्यनिवृत्यर्थं यथा क्रियासु प्रवर्तते लोकः । पुरुषस्य विमोक्षार्थं प्रवर्तते तद्वदव्यक्तम् ॥५८॥ भावार्थ : जैसे लोग अपनी उत्सुकता की निवृत्ति हो, इसलिए क्रिया में प्रवृत्त होते है, वैसे अव्यक्त (प्रधान) पुरुष के मोक्ष के लिए प्रवृत्त होता है। व्याख्या : जिस प्रकार संसार में व्यक्ति उत्सुकतावश अनेक कार्यों को सम्पन्न करता है, क्योंकि किसी भी वस्तु को जानने की उत्सुकता उसका स्वभाव है। जैसे - मानो हम अत्यावश्यक कार्य से बाजार जा रहे हों, हमें देर भी क्यों न हो रही हो । बाजार में एक स्थान विशेष पर भीड देखकर हमें उस विषय में जानने की स्वाभाविक उत्कण्ठा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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