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षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, सांख्यदर्शन का विशेषार्थ
विशेषार्थ : ज्ञानस्वरुप पुरुष निर्गुण होने के कारण स्वभाव से दुःखरहित है, किन्तु लिङ्गशरीर के साथ सम्बन्ध के कारण उसके प्रमुखतत्त्व बुद्धि के धर्मों को अपने में मानकर दुःखी होता है । लिङ्गशरीर युक्त पुरुष लोकलोकान्तर में संसरण करते हुए अनेक योनियों में जन्म लेकर स्थूलशरीर ग्रहण करता है। इसलिए तत्तत् शरीर में होनेवाली वृद्धावस्था अथवा मृत्यु को, उससे होने वाले दुःखों को अपने मान लेता है, क्योंकि पुरुष एवं सूक्ष्मशरीर लोहे के तप्तपिण्ड में अग्नि के समान परस्पर संपृक्त (जुडे हुए) रहते हैं। पुरुष जरामरण आदि से प्राप्त होनेवाले इन दुःखो को तब तक प्राप्त करता रहता है, जब तक विवेकज्ञान आदि से उसे सूक्ष्मशरीर से छुटकारा प्राप्त नहीं हो जाता है। इसलिए लिङ्गशरीर के साथ सम्बन्ध होने के कारण स्वभाव से ही पुरुष को दुःख की प्राप्ति होती रहती है।
जैसा कि, पूर्व में प्रतिपादित किया जा चुका है कि १८ तत्त्वों से युक्त सूक्ष्मशरीर की सृष्टि के आरम्भ से ही (आदिकाल से) स्थिति रहती है तथा सांख्य के पुरुष बहुत्व के सिद्धांत के अनुसार प्रत्येक सूक्ष्मशरीर के साथ एक-एक पुरुष भी रहता है। सूक्ष्मशरीर में बुद्धि की प्रधानता होती है तथा उसमें स्थित धर्म-अधर्म आदि भावों के कारण वह किसी पशु अथवा मनुष्य का शरीर धारण करता है।
प्रकृति के नियम के कारण उस शरीर में होनेवाले बुढापा, मृत्यु, रोगादि को उनसे होनेवाले दुःखों को, सूक्ष्मशरीर में स्थित (सम्पृक्त) पुरुष अपने मानता है, जबकि वास्तव में वे उसके नहीं होते है। इसमें प्रमुख कारण पुरुष का सूक्ष्मशरीर के साथ घनिष्टरुप से जुड़ा होना तथा अज्ञान ही होता है । जो विवेकज्ञान होने तक तथा सूक्ष्मशरीर की निवृत्ति तक बना रहता है, क्योंकि विवेकज्ञान से पुरुष एवं प्रकृति का भेद ज्ञात होने पर शरीरपात के अनन्तर सूक्ष्मशरीर अपने कारणरूप मूलप्रकृति में विलीन हो जाता है तथा पुरुष अपने विराट्रप पुरुष में विलीन हो जाता है, यही मोक्ष है, यही कैवल्य है।
इस प्रकार बुद्धि और उसके गुणों से युक्त सूक्ष्मशरीर से सम्बद्ध चेतनपुरुष के अज्ञानवश दुःखप्राप्ति की अवधि लिङ्गशरीर की निवृत्ति पर्यन्त होती है और सूक्ष्मशरीर, क्योंकि सत्त्व रजस् और तमोगुण सम्पन्न होता है और ये तीनों सुखदुःखमोहात्मक होते हैं । अतः दुःखादि की स्थिति स्वभाव से ही मानी गई है। कारिका के अभिप्राय को इस प्रकार भी प्रदर्शित किया जा सकता है -
इत्येष प्रकृतिकृतो महदादिविशेषभूतपर्यन्तः ।
प्रतिपुरुषविमोक्षार्थं स्वार्थ इव परार्थ आरम्भः ॥५६॥ भावार्थ : इस अनुसार से महद् इत्यादि से लेकर विशेष (स्थूल) भूतो तक का सर्ग प्रकृति ने ही रचा है। (और) वह प्रत्येक पुरुष के मोक्ष के लिए है। (इसलिए) अपने लिए प्रतीत होता हुआ (वह कार्य) भी वस्तुतः दूसरो के लिए ही है।
विशेषार्थ : इस प्रकार जिसका विवेचन हम पूर्व की कारिकाओं में विस्तार से कर चुके है, महत् तत्त्व से लेकर पञ्चमहाभूत पर्यन्त यह सृष्टिरुप कार्य जिसे तन्मात्रासर्ग और बुद्धि-सर्ग के रुप में भी वर्णित किया जा चुका है। मूल प्रकृति के द्वारा सूक्ष्मशरीर के साथ स्थित बद्ध-पुरुष के मोक्ष के लिए ही किया जाता है। ज्ञातव्य है कि, सांख्य के पुरुष बहुत्व के सिद्धान्त के अनुसार प्रत्येक सूक्ष्मशरीर के साथ एक पुरुष भी सम्पृक्त होता है, ये दोनों ही बुद्धि में स्थित धर्म अधर्म आदि भावों के कारण लोक लोकान्तर में विचरण करते हुए अलग अलग योनियों में जन्म लेकर स्थूलशरीर धारण करते है, जिससे पुरुष के भोगापवर्ग का कार्य सम्पन्न होता है। बद्धपुरुष ही भोग करता है तथा तत्त्वज्ञान के अनन्तर उसी का मोक्ष होता है। इस प्रकार प्रकृति द्वारा किया गया सृष्टिरूप यह कार्य भले ही स्वार्थ (अपने लिए) अर्थात् प्रकृति के लिए किया हुआ प्रतीत हो, किन्तु वस्तुतः प्रकृति इसे सूक्ष्मशरीर के साथ आबद्ध
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