SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 424
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, सांख्यदर्शन का विशेषार्थ ३११ २. तिर्यक्सृष्टि : यह पशु, पक्षी, मृग, सरीसृप तथा स्थावर भेद से पाँच प्रकार की होती है। गाय से लेकर घोडे तक सभी प्रकार के जानवर पशु भेद के अन्दर परिगणित है। शेर, हिरण आदि सभी जंगल में रहनेवाले जंगली जानवरों को यहाँ 'मृग' कहा गया है । पंखों से युक्त कबूतर, चिडिया आदि सभी 'पक्षी' की श्रेणी में आते है। सभी सरक कर चलनेवाले सर्प आदि को 'सरीसृप' की कोटि में रखा गया है एवं वृक्ष से लेकर लता, गुल्म स्थाणुपर्यन्त सम्पूर्ण सृष्टि तिर्यक्योनि के स्थावर भेद के अन्दर मानी गई है। इनमें स्वतः गमनशीलता का अभाव होता है। तिर्यक्सृष्टि में तमोगुण का प्राधान्य होता है। ३. मानुषसृष्टि : मनुष्यों की सृष्टि एक प्रकार की मानी गई है। यहाँ स्त्री, पुरुष, ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि का भेद नहीं किया गया है। मनुष्यों में सत्त्व और तमोगुण की सम अवस्था रहती है। सत्त्व, रजस् और तमोगुण से निर्मित होने पर भी सृष्टि में रूप एवं स्वभाव की भिन्नता, गुणों के न्यूनाधिक्य एवं एक दूसरे को दबाने की प्रवृत्ति के कारण होती है। इसका कथन पूर्व में किया जा चुका है। ___इस प्रकार भौतिकसृष्टि का भेदों सहित परिगणन करने के बाद ग्रन्थकार ब्रह्मा से लेकर तिनके तक सम्पूर्ण सृष्टि में सत्त्व आदि गुणों की स्थिति बताते हुए उसके तीन भेदों का अगली कारिका में उल्लेख करते है - उर्ध्वं सत्त्वविशालस्तमो विशालश्च मूलतः सर्गः। मध्ये रजो विशालो ब्रह्मादिस्तम्बपर्यन्तः ॥५४॥ भावार्थ : सत्त्वप्रचुरलोक ऊंचे, तमस् प्रचुरलोक नीचे और रजस् प्रचुरलोक मध्य में आये हुए है। इस अनुसार से ब्रह्म इत्यादि से लेकर घास की नौक (स्तम्ब) तक (तृणपर्यन्त) की सृष्टि रही हुई है। विशेषार्थ : ब्रह्मा से लेकर तृणपर्यन्त सम्पूर्ण भौतिकसृष्टि को सत्त्व, रजस् और तमस् तीन गुणों की दृष्टि से क्रमशः उत्तम, मध्यम और अधम (निम्न) तीन श्रेणियों में विभाजित किया गया है। ऊर्ध्व अर्थात् उत्तमलोक (ब्रह्म, प्रजापति, स्वर्ग, पितृ, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस और पिशाच लोक) जिन्हें देवलोक भी कहा जाता है । वहाँ निवास करनेवाले जीवों में सत्त्व गुण की प्रचुरता रहती है, अर्थात् इनमें रजोगुण एवं तमोगुण की स्थिति अत्यल्प होती है। इसी कारण इनमें ज्ञान और सुख का बाहुल्य होता है। सत्त्वगुण प्रकाशक एवं लघु होने से यहाँ की प्रत्येक वस्तु प्रकाशयुक्त एवं लघु होती है। इन सब गुणों के कारण यह अन्य दोनों की अपेक्षा श्रेष्ठ है, उत्तम है। इसलिए यहाँ ऊर्ध्व पदं का प्रयोग किया गया है। उर्ध्व पद को यहाँ दिशावाची मानना उचित नहीं है। द्वितीय, मध्य सृष्टि जो न उत्तम है न अधम, जिसके अन्तर्गत सातों द्वीप तथा उनके चारों ओर स्थित सातों समुद्र आते है, जिसमें मनुष्य निवास करते है। इस सृष्टि में रजोगुण की प्रधानता है। रजोगुण के दुःखात्मक होने के कारण ही इन में दुःख की अधिकता रहती है। तृतीय, अधम अर्थात् निम्नसृष्टि के अन्तर्गत पशुओं से लेकर स्थावर पर्यन्त सभी प्राणी आते है। इनमें तमोगुण की प्रचुरता के कारण मोह अर्थात् जड़भाव की उपलब्धि मुख्य रुप से होती है। कारिका में प्रयुक्त मूलतः पद का अर्थ अधम अथवा निम्न है। इस प्रकार सृष्टि की विस्तृत विवेचना के पश्चात् सृष्टि में दुःख की स्थिति को स्पष्ट करते है - तत्र जरामरणकृतं दुःखं प्राप्नोति चेतनः पुरुषः। लिङ्गस्यानिवृत्तेस्तस्माद् दुःखं स्वभावेन ॥५५॥ भावार्थ : उसमें जब तक लिंगशरीर की निवृत्ति न हो, तब तक चेतन ऐसा पुरुष जरा-मरण से होनेवाला दुःख का अनुभव करता है। इसलिए (सृष्टि में) दुःख स्वभाव से ही माना गया है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy