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________________ ३१० षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, सांख्यदर्शन का विशेषार्थ इसी प्रकार कारिका में प्रयुक्त 'भाव' पद के द्वारा धर्म, अधर्म, ज्ञान, अज्ञान, वैराग्य, राग, ऐश्वर्य, अनैश्वर्य नामक आठ बुद्धि धर्मो के साथ-साथ विपर्यय, अशक्ति, तुष्टि, सिद्धि नामक प्रत्यय सर्ग के चार भेदों एवं पचास उपभेदों का भी ग्रहण होता है। ___ ये दोनों परस्पर सापेक्ष है। एक के बिना दूसरे की स्थिति सम्भव नहीं है, जिसे बीजांकुर न्याय द्वारा समझा जा सकता है, क्योंकि भाव के अभाव में तन्मात्रा द्वारा निर्मित सृष्टि की पुरुष के लिए कोई उपयोगिता नहीं होती तथा तन्मात्रसृष्टि (स्थूलशरीर) के अभाव में केवल भावसृष्टि (सूक्ष्मशरीर) पुरुष के भोगापवर्गरूप प्रयोजन की सिद्धि में समर्थ नहीं होता। इस प्रकार दोनों के लिए एक दूसरे की अपेक्षा स्वतः सिद्ध है। ये दोनों प्रकार की सृष्टियाँ आपस में उपकार्य-उपकारकभाव से पुरुष के भोग एवं अपवर्गरूप प्रयोजन की सिद्धि में सहायक होती है। जैसे, सांसारिक भोगों को भोगने के लिए इसके साधनभूत स्थूलशरीर के साथ-साथ इन्द्रियों एवं अन्तःकरणों की भी आवश्यकता होती है, जो भावसृष्टि है। इसी प्रकार अपवर्ग का साधनरूप विवेकज्ञान भी सूक्ष्म एवं स्थूल दोनों प्रकार की सृष्टि के द्वारा ही सम्भव है। इन दोनों में कारणकार्यरुप सम्बन्ध भी होता है। सूक्ष्मशरीर में स्थित धर्म अधर्म आदि भावों के कारण उसे मनुष्य, बिल्ली आदि का स्थूलशरीर धारण करना पडता है तथा उस शरीर द्वारा किए कर्मो से भावों का निर्माण होता है, जो सूक्ष्मशरीर का आधारभूत तत्त्व है। इस प्रकार प्रथम स्थिति में सूक्ष्मशरीर, स्थूलशरीर का कारण हुआ, किन्तु दूसरी स्थिति में स्थूलशरीर भावशरीर का कारण होता है। यह क्रम अनादिकाल से चला आ रहा है। इस प्रकार बुद्धिसर्ग का विस्तार एवं संक्षेप में निरुपण करने के बाद तन्मात्रकृतसर्ग - भौतिकसर्ग के विस्तृत विवेचन के लिए अग्रिम कारिका का अवतरण करते है। अष्टविकल्पो दैवस्तैर्यग्योनश्च पञ्चधा भवति । मानषुश्चैकविधः समासतो भौतिकः सर्गः ॥५३॥ भावार्थ : देवसृष्टि आठ प्रकार की, तिर्यग् योनि पाँच प्रकार की और मनुष्यसृष्टि एक प्रकार की, ऐसे संक्षेप में (चौदह प्रकार की) भौतिक सृष्टि हुई। विशेषार्थ : सांख्य में पञ्चतन्मात्राओं से पञ्चमहाभूतों की उत्पत्ति मानी गई है। इन महाभूतों से उत्पन्न विभिन्नप्रकार के स्थूलशरीर एवं पदार्थों को यहां 'भौतिकसृष्टि' संज्ञा प्रदान की गई है। ग्रन्थकार ने यहाँ संक्षेप में तीन प्रकार की सृष्टि का उल्लेख किया - दैवी, तिर्यक्, मनुष्य-सम्बन्धी । पुनः इनके उपभेदो की संख्या का उल्लेख किया। इसके अनुसार प्रथमप्रकार की दैवीसृष्टि आठ प्रकार की होती है। दूसरे प्रकार की तिर्यक् योनि के पाँच भेद होते है तथा तीसरे प्रकार की मनुष्य-सृष्टि एक प्रकार की ही मानी गई है अब हम इन तीनों का विस्तार से उल्लेात करते है - १. दैवसृष्टि : ब्राह्म, प्राजापत्य, ऐन्द्र, पैत्र, गान्धर्व, याक्ष, राक्षस और पैशाच ये आठ प्रकार की देवताओं की योनियाँ मानी गई है। जो अपने अपने लोकों में निवास करते हैं। ये लोक इन्हीं के नाम से जाने जाते हैं। जैसेब्रह्मलोक में ब्रह्मा की सृष्टि, ब्रह्मा निवास करते हैं। प्रजापतिलोक में प्राजापत्य सृष्टि, स्वर्लोक में ऐन्द्रसृष्टि, पितृलोक में पैत्रसृष्टि से सम्बन्धित, गन्धर्वलोक में गान्धर्वसृष्टि से सम्बन्धित तथा यक्षलोक में याक्ष देवयोनि से सम्बन्धित, राक्षस लोक में राक्षस तथा पिशाच लोक में पैशाच निवास करते है। इनमें सत्त्वगुण का प्राधान्य माना जाता है। इसी कारण ये दैवसृष्टि कहलाती है। इनमें अपेक्षाकृत अधिक ऐश्वर्य एवं शक्ति विद्यमान रहते हैं, तथा इनके धर्म अधर्म आदि भाव भी दिव्य होते है। For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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