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षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, सांख्यदर्शन का विशेषार्थ
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श्री जयमंगलाकार ने तत्त्व को जान चुकने वाले सुहृद् अर्थात् मित्र को प्राप्त कर उत्पन्न होनेवाले ज्ञान को ही ज्ञानरूपवाली 'सुहृत्प्राप्ति' नामक सिद्धि कहा है।
५. दान : यहाँ दान से अभिप्राय विवेकज्ञान की शुद्धि से है, न कि कोई वस्तु प्रदान करने से, क्योंकि यह 'दान' शब्द शोधनार्थक 'दै' धातु से ल्युट् प्रत्यय करके निष्पन्न होता है। 'डुदाञ् दाने' धातु से निष्पन्न नहीं होता। यहाँ शुद्धि का अर्थ-वासनासहित संशय और मिथ्याज्ञान के परिहारपूर्वक विवेकज्ञान के निर्मलप्रवाह में स्थित होने से है। जो लम्बे समय के लगातार अभ्यास के द्वारा परिपक्व होता है।
यह गौण पाँच सिद्धियों में अन्तिम अर्थात् पाँचवी सिद्धि है। इसी का दूसरा नाम 'सदामुदित' भी है, क्योंकि इसके द्वारा साधक सदैव मुदित अर्थात् प्रसन्न रहता है। श्री जयमंगलाकारने इसे धन आदि के दान के द्वारा सम्मानित ज्ञानी, साधक को ज्ञान देता है, इस रुप में 'दान' नामक सिद्धि कहा है। ___ इस प्रकार पाँच गौण सिद्धियों की व्याख्या के बाद मुख्य सिद्धियों का कथन करते है, जो तीन प्रकार के दुःखों, जिनका विनाश (आत्यन्तिक निवृत्ति) व्यक्ति का मूल उद्देश्य है, की विनाशक होने के तीन प्रकार की कही गई है। इन्हें क्रमशः मोद, मुदित और मोदमान कहा जाता है।
आध्यात्मिक, आधिभौतिक एवं आधिदैविक जिन त्रिविध दुःखों का विवेचन ग्रन्थ के आरम्भ में किया गया है, जिसे त्रिविधताप भी कहा जाता है। उसका आत्यन्तिक विनाश ही परम परुषार्थ है। इनमें प्रत्येक प्रकार के दःख का उच्छेद एक-एक सिद्धि मानी गई है। अर्थात् १. आध्यात्मिक दुःखो की विनाशिका 'मोद' नामक सिद्धि, २. आधिभौतिक दुःखों का विनाश करनेवाली 'मुदित' नामक सिद्धि दूसरी एवं ३. आधिदैविक दुःखों की उच्छेदिका 'मोदमान' नामक सिद्धि होती है। इस प्रकार पाँच गौण एवं तीन मुख्य कुल मिलाकर आठ सिद्धियाँ होती है। (अष्टौ सिद्धय:) ___ कारिका के अन्तिमचरण में ग्रन्थकार ने प्रत्ययसर्ग में इसकी महत्ता प्रतिपादित करते हुए उन्हें अंकुश के समान बताया है, अर्थात् ५६वीं कारिका में कहे गए बुद्धि की सृष्टि विपर्यय, तुष्टि एवं सिद्धि, के चार प्रकारों में से पूर्व के तीन (विपर्यय, अशक्ति, पुष्टि) सिद्धिस्वरूपा हस्तिनी के लिए अंकुश के समान है। अतः सिद्धि के विरोधी होने से मुमुक्षुओं के लिये त्याज्य है, क्योंकि सिद्धियों के द्वारा ही तत्त्वज्ञान होता है, जिससे मोक्ष की प्राप्ति सम्भव है। इस प्रकार बुद्धि-सर्ग में प्रथम तीन हेय तथा चतुर्थ 'सिद्धि' उपादेय है।
न विना भावैलिङ्गंन विना लिनेन भावनिर्वृत्तिः ।
लिंङ्गाख्यो भावाख्यस्तस्माद् द्विविधः प्रवर्त्तते सर्गः ॥५२॥ भावार्थ : भावों (प्रत्ययसर्ग) के बिना लिङ्ग (तन्मात्रसर्ग उत्पन्न) नहीं (होता) । न ही लिङ्गसर्ग के बिना बुद्धिसृष्टि की निष्पत्ति (सम्भव है) । अतः लिङ्ग और भाव नामक दो प्रकार की सृष्टि (एक ही बुद्धि से) प्रवृत्त होती है।
विशेषार्थ : यह सम्पूर्ण सूक्ष्म एवं स्थूलप्रपञ्चरुप सृष्टि पुरुष के भोगापवर्ग की सिद्धि के लिए है, किसी एक के द्वारा इस प्रयोजन की सिद्धि असम्भव है। इसी कारण पुरुष का प्रयोजन सिद्ध करने के लिए भावरूप सूक्ष्म एवं लिङ्गरूप तन्मात्राओं से निर्मित दो प्रकार की सृष्टियाँ प्रवृत्त होती है।
यद्यपि सांख्यशास्त्र में लिङ्ग पद का प्रयोग सूक्ष्मशरीर के लिए हुआ है, किन्तु यहाँ इसका प्रयोग शब्द, स्पर्श, रूप, रस एवं गन्ध नामक पञ्चतन्मात्राओं से निर्मित स्थूलसृष्टि के लिए हुआ है, दूसरे शब्दों में इसे स्थूलशरीर भी कहा जा सकता है।
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