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षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, सांख्यदर्शन का विशेषार्थ
ऊहः शब्दोऽध्ययनं दुःखविघातस्रयः सुहृत्प्राप्तिः ।
दानं च सिद्धयोऽष्टौ सिद्धेः पूर्वोऽङ्कशस्त्रिविधः ॥५१॥ भावार्थ : (१) ऊह, (२) शब्द, (३) अध्ययन, (४-६) त्रिविधदुःख का विघात, (७) मित्रप्राप्ति, (८) दान (= पवित्रता) ये आठ सिद्धियाँ है । पहले कहे हुए तीन (विपर्यय, अशक्ति और तुष्टि) वे इस सिद्धि पर के अङ्कुश है।
विशेषार्थ : सिद्धियाँ मुख्यरुप से दो प्रकार की होती है - मुख्य और गौण । इनमें आध्यात्मिक, आधिभौतिक एवं आधिदैविक तीन प्रकार के दुःखों का विनाश करनेवाली तीन मुख्य सिद्धियाँ है तथा उनके उपाय के रूप में होनेवाली पाँच अन्य गौण सिद्धियाँ है। इस प्रकार इनकी संख्या कुल मिलाकर आठ मानी गई है। इनमें पाँच गौण सिद्धियाँ कारण (साधन) और तीन मुख्य सिद्धियाँ कार्य (साध्य) के रूप में भी अवस्थित है। अब हम सर्वप्रथम कारणरूप में स्थित पाच गौण सिद्धियों का विवेचन करेंगे।
१. अध्ययन : गरु के मुख से अध्यात्मविद्या का विधिपर्वक शाब्दिकरूप से श्रवण द्वारा ग्रहण किया जाना ही अध्ययन रूप सिद्धि कही गई है। अध्यात्म विद्या का प्रमुख प्रतिपाद्य पुरुष तत्त्व है, उसी का गुरुमुख से विधिवत् ग्रहण यहाँ अभिप्रेत है। श्री जयमंगलाकार ने इसे आचार्य और शिष्य के सम्बन्ध से सांख्यशास्त्र का शाब्दिक और अर्थज्ञान के साथ उत्पन्न होनेवाले ज्ञान को 'अध्ययन' नामक सिद्धि कहा है। गौण सिद्धियों में इसका पहला स्थान है, क्योंकि शेष चार गौण सिद्धियों का यही एक मात्र हेतु है। इसी का दूसरा नाम 'तारम्' भी है । क्योंकि संसाररूपी भव सागर से पार उतारने वाला यह प्रथम सेतु है।
२. शब्द : अध्ययन का कार्यरुप शब्द दूसरी गौण सिद्धि है। शब्द पद के द्वारा यहाँ उससे होनेवाले अर्थज्ञान की भी प्रतीति हो रही है, क्योंकि अर्थज्ञान ही अज्ञान का विनाश करते हुए विवेकज्ञान कराने में सक्षम होता है, केवल उच्चारण किया गया शब्द नहीं। इस प्रकार इसे शब्दपाठ (उच्चारण) एवं अर्थज्ञान की दृष्टि से दो प्रकार का कहा जा सकता है। इसी का दूसरा नाम 'सुतारम्' भी है, क्योंकि शब्द से उत्पन्न होनेवाले अर्थज्ञान द्वारा संसाररुपी समुद्र का पार किया जाना (तारण) लगभग निश्चित ही है। श्री जयमंगलाकार ने दूसरे के द्वारा किए गए सांख्यशास्त्र के पाठ अर्थात् पारायण को सुनकर उत्पन्न होनेवाले तत्त्वज्ञान को 'शब्द' नामक सिद्धि कहा है।
३. ऊह ः 'ऊह वितर्के' धातु से निष्पन्न होता है जिसका अभिप्राय है तर्क । तर्को के द्वारा सांख्यशास्त्र के अर्थ का परीक्षण ही तर्क है। इसे ही 'ऊह' नामक सिद्धि कहा गया है। यह परीक्षण पूर्वपक्ष के निराकरण द्वारा उत्तरपक्ष अथवा सिद्धान्तपक्ष को स्थापित करने के द्वारा सम्पन्न होता है। इसी को विद्वानों ने 'मनन' संज्ञा भी दी है। इसी का दूसरा नाम 'तारतार' भी है, क्योंकि यह सिद्धि पहले कही गई तारम् और सुतारम् सिद्धियों से बढ़कर होती है।
श्री जयमंगलाकार ने पूर्व जन्मों के अभ्यास के कारण उपदेश के बिना ही स्वयं तत्त्वज्ञान होना ही 'ऊह' नामक सिद्धि कहा है।
४. सुहृत्प्राप्ति : यहाँ प्रयुक्त सुहृत् पद से अभिप्राय - गुरु, शिष्य एवं साथ में अध्ययन करनेवाले सहपाठियों से है। उनका प्राप्त होना भी एक सिद्धि ही है, जो वस्तुतः पहले कही गई अध्ययन नामक सिद्धि के फलरूप में कही जा सकती है। अपने आप किया गया अध्ययन एवं चिन्तन तब तक सार्थक नहीं होता जब तक उसकी अपने सुहृदों-गुरु, शिष्य एवं सहपाठियों के साथ चर्चा न हो, उन सभी के द्वारा वह सम्मत न हो। इस प्रकार गुरु, शिष्य एवं सहपाठियों के रूप में सहमति अथवा मान्यता प्रदान करनेवाले संवादकों की प्राप्ति ही सुहृत्प्राप्ति नामक सिद्धि है। इसी को 'रम्यक' पद कहा जाता है। 'रमन्त अत्र' इस व्युत्पत्ति के अनुसार 'रम्यक' अधिकरण में यत् तथा स्वार्थ में 'क' प्रत्यय होकर निष्पन्न होता है।
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