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षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, सांख्यदर्शन का विशेषार्थ
विशेषार्थ : पुरुष के भोगापवर्ग की सिद्धि ही सृष्टि का प्रयोजन है, जो त्रिगुणात्मिका प्रकृति द्वारा सम्पन्न की जाती है। इनमें भी भोगरूप प्रयोजन गौण एवं अपवर्गरूप प्रयोजन मुख्य होता है। सांख्य द्वारा बताए गए २५ तत्त्वों के निरन्तर अभ्यास के द्वारा जब पुरुष को विवेक-ज्ञान होता है, यही अपवर्ग है। तब चेतन पुरुष और अचेतन प्रकृति का संयोग होते हुए भी सृष्टिकार्य सम्पन्न नहीं होता, क्योंकि प्रकृति का यह स्वभाव है कि यह अज्ञानावस्था में ही प्रसवोन्मुखी होती है। ___ अपवर्ग के कारणस्वरूप विवेकज्ञान रूप प्रयोजन के सिद्ध हो जाने पर न तो प्रकृति पुरुष के लिए भोग जुटाती है और न ही पुरुष को भोगों की अपेक्षा होती है। अतः विवेकख्याति की स्थिति में तत्त्वज्ञानी स्थूलशरीर में (पूर्वकृत कर्मों के संस्कार के कारण) रहते हुए भी सांसारिक भोगों में सम्पृक्त नहीं होता। इस अवस्था में 'प्रकृति को मैने देख लिया है।' ऐसा सोचकर पुरुष की प्रकृति के प्रति जिज्ञासा समाप्त हो जाती है। वह उसके प्रति उपेक्षा का भाव ग्रहण करता है। इसी प्रकार प्रकृति भी इस पुरुष ने मुझे देख लिया है, मेरे स्वरूप को जान लिया है , ऐसा विचारकर उसके सामने अपने सृष्टिरूप प्रपञ्च को प्रसारित नहीं करती, अपितु स्वयं को सिमेट लेती है। अतः ज्ञानावस्था में दोनों के साथ रहने पर भी सृष्टिरूप कार्य सम्पन्न नहीं होता है, क्योंकि सृष्टि का मुख्यप्रयोजन अपवर्ग
का मुख्य कारण विवेकज्ञान की प्राप्त हो जाती है। ___ अवतरणिका : तत्त्वज्ञान होने पर मोक्ष की प्राप्ति होती है, किन्तु इसके होने पर भी व्यक्ति तत्क्षण स्थूलशरीर से मुक्त नहीं हो जाता, अपितु पूर्व जन्मों में किए गए कर्मों के फलभोग तक तत्त्वज्ञानी के स्थूलशरीर की स्थिति बनी रहती है, इसी का सोदाहरण प्रतिपादन करने के लिए अग्रिम कारिका का कथन करते है -
सम्यग्ज्ञानाधिगमात् धर्मादीनामकारणप्राप्तौ ।
तिष्ठति संस्कारवशात् चक्रभ्रमिवद् धृतशरीरः ॥६७॥ भावार्थ : (बाद में) सम्यक् ज्ञान प्राप्त हुआ होने से धर्म इत्यादिक (संसार का) कारण नहीं बनते है। तो भी संस्कार को वश होकर, जैसे कुम्भकार के चक्र का भ्रमण, चालू रहता है, वैसे पुरुष शरीर धारण करके रहता है।
व्याख्या : प्रकृति पुरुष के भेदरुप, विशुद्ध, अपरिशेष एवं केवल स्वरूप आत्मज्ञान के होने पर तत्त्वज्ञानी का पुनर्जन्म नहीं होता अर्थात् उसका सूक्ष्मशरीर पुनः स्थूलशरीर धारण नहीं करता। इसके कारण का उल्लेख कारिका के द्वितीय चरण में किया गया है। (धर्मादीनामकारणप्राप्तौ) ।
क्योंकि सूक्ष्मशरीर में स्थित बुद्धि के धर्म-अधर्म, अज्ञान, राग, विराग, ऐश्वर्य-अनैश्वर्य आदि सात भाव ही पुनर्जन्म के कारण होते है, किन्तु आत्मज्ञान द्वारा ये भाव भुने हुए बीज के समान पुनर्जन्म के रूप में अंकुरित नहीं होते है। यही धर्म भावों का अकारणत्व को प्राप्त होना है।
इस ज्ञान अवस्था में भी तत्क्षण स्थूलशरीर का पात नहीं होता, अपितु वह प्रारब्धकर्मों (पूर्वजन्म के कर्मों) तथा ग्रहण किए हुए अन्न-पान आदि के संस्कार से उसी प्रकार स्थित रहता है, जिस प्रकार कुम्हार द्वारा बर्तन बनाते हुए चक्र चलाना बन्द कर देने पर भी वह पूर्वप्राप्त शक्ति के द्वारा निरन्तर चलता रहता है। तुरन्त बन्द नहीं होता, क्योंकि उसमें गति के संस्कार रहते है। __ अत: तत्त्वज्ञानी के स्थूलशरीर की स्थिति पूर्वजन्म के संस्कारो के भोगपर्यन्त ही रहती है। तत्पश्चात् उसके त्रिविध दुःखों की आत्यन्तिकनिवृत्ति के कारण उसे कैवल्य की प्राप्ति हो जाती है।
अवतरणिका : तत्त्वज्ञानी को कैवल्य की प्राप्ति शरीरपात के अनन्तर की होती है। इसका कथन करने के लिए ग्रन्थकार अग्रिम कारिका का अवतरण करते है -
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