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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, सांख्यदर्शन का विशेषार्थ असमर्थता अथवा विकलता आदि के कारण विषय के ज्ञान में बाधा ही 'अशक्ति' कहलाती है। जैसे यदि नेत्र किसी रोगादि से काम कर दे अथवा विनष्ट हो जाए तो इसे नेत्र का वध या उपघात कहेंगे और यह 'अशक्ति' का 'अन्धत्व' नामक एक भेद होगा । ३०५ मन सहित इन्द्रियों की संख्या ग्यारह मानी गई है। इनमें से किसी भी एक या अनेक के विनाश से होनेवाली असमर्थता ‘अशक्ति' के ग्यारह भेद हुए । नौ प्रकार की तुष्टि और आठ प्रकार की सिद्धि जो वस्तुतः बुद्धि से सम्बद्ध (प्रपञ्च) है | इनकी असफलता भी ' अशक्ति' के अन्तर्गत ही परिगणित होने के कारण सत्रह बुद्धिवध माने गए है । जिनमें ग्यारह इन्द्रियवध मिलकर कुल अट्ठाईस 'अशक्ति' के भेद हो जाते है। जिनका यहां संक्षेप में क्रमश: उल्लेख किया जा रहा है = इन्द्रियविषयक अशक्ति (असमर्थता) के ग्यारह प्रकार : (क) ज्ञानेन्द्रियविषयक १. बाधिर्य : श्रोत्रेन्द्रिय के दोष के कारण शब्द को ठीक प्रकार से ग्रहण न कर पाना, असमर्थता ही बाधिर्य होता है । २. कुष्ठिता : त्वगेन्द्रिय 'स्पर्शरुप' ज्ञान को ग्रहण करती है, किन्तु किसी दोष आदि के कारण स्पर्श ज्ञान को ठीक प्रकार से ग्रहण न कर पाना ही कुष्ठिता नामक अशक्ति है । ३. अन्धत्व : नेत्रेन्द्रिय में दोष के कारण उसके विषय 'रुप' को ग्रहण न कर पाना ही अन्धत्व नामक अशक्ति है । ४. जडता : रसनेन्द्रिय जिह्वा जब किन्ही कारणों से रस का ग्रहण नहीं कर पाती, वस्तु के स्वाद का अनुभव करने में असमर्थ होती है। वह डा नामक 'अशक्ति' कहलाएगी। ५. अजिघ्रता : घ्राणेन्द्रिय का कार्य गन्ध को ग्रहण करना है, किन्तु यदि किसी कारण यह इसे ग्रहण करने में असमर्थ हो जाती है तो 'अजिघ्रता' नामक 'अशक्ति' का भेद कहा जाएगा। (ख) कर्मेन्द्रिय विषयक ६. मूकता : वाणी के दोष के कारण व्यक्ति का बोल न पाना ही 'मूकता' नामक अशक्ति का भेद है। ७. कौण्ड्य : यदि व्यक्ति किसी दोष के कारण हाथ से कोई वस्तु न पकड सके तो यह कौण्ड्य नामक अशक्ति का भेद होगा । ८. पंगत्व : पैरों के द्वारा कहीं जाने आने में असमर्थता पंगुत्व अशक्ति है । ९. उदावर्त : किसी कारण मल-मूत्र के विसर्जन में उत्पन्न असमर्थता 'उदावर्त' नामक अशक्ति का भेद होता है । १०. क्लैब्य : इसके कारण व्यक्ति मैथुन क्रिया में समर्थ नहीं हो पाता । यह उपस्थ नामक इन्द्रिय में दोष के कारण होता है 1 ११. मन्दता : इसके कारण व्यक्ति विषय को ग्रहण करने में असमर्थ होता है । मन में दोष के कारण यह उत्पन्न होता है, क्योंकि मन उभयात्मक इन्द्रिय है। अतः इसका सम्बन्ध दोनों से होता है । ये ग्यारह प्रकार की ' अशक्ति' करण अर्थात् इन्द्रियों से सम्बद्ध होने के कारण करणगत भी मानी गई। तुष्टियों की संख्या नौ तथा सिद्धियों की संख्या आठ मानी गई है। इनके अभाव से जो अशक्ति उत्पन्न होती है, उनकी संख्या इन दोनों के योग के बराबर सत्रह मानी गई है। अतः अब हम बुद्धि के स्वरूपगत सत्रह प्रकार की अशक्तियों का उल्लेख करेंगे ।. (ग) अतुष्टि विषयक अशक्ति के नौ प्रकार : १. असुवर्णा : मूलप्रकृति की सत्ता को स्वीकार न करना 'असुवर्णा' नामक अतुष्टि कही गई है । २. अनिला : महत् तत्त्व की सत्ता को स्वीकार न करनेवाली अतुष्टि 'अनिला' मानी गई है, इसी को 'अज्ञानमलिना' भी कहा गया है । ३. मनोज्ञा : अहंकार के अभाव की प्रतीति ही 'मनोज्ञा' नामक अतुष्टि है । ४. अदृष्टि : आकाशादि महाभूत एवं तन्मात्राओं का कोई अस्तित्व नहीं है, ऐसा मानना अदृष्टि नामक अतुष्टि है । ५. अपरा : धन कमाने में प्रवृत्त होना 'अपरा' नामक अतुष्टि कही गई है । ६. सुपरा : कमाए हुए धन की रक्षा में प्रवृत्त होना 'सुपरा' नामक For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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