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षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, सांख्यदर्शन का विशेषार्थ
अतुष्टि मानी गई है । ७. असुनेत्रा : कमाए हुए धन के विनाश में किसी प्रकार का दोष न मानना 'असुनेत्रा' नामक अतुष्टि है। ८. वसुनाडिका : भोगों में आसक्ति का होना ही वसुनाडिका अतुष्टि है । ९. अनुत्तमाम्भसिका : हिंसा आदि दोषों की उपेक्षापूर्वक भोगों में प्रवृत्ति ही 'अनुत्तमाम्भसिका' अतुष्टि मानी गई है। (छ) असिद्धि विषयक अशक्ति के आठ प्रकार -
१. अप्रतार : बिना अध्ययन के ही किसी भी तत्त्व का आविर्भाव, प्रकट होना ‘अप्रतार' नामक अशक्ति है। २. असुतार : शास्त्रों के विधिवत् अध्यय न करने पर अन्य अर्थ का कथन करनेवाले शब्द का अन्य ही अर्थ करना 'असुतार' नामक असिद्धि, अशक्ति का भेद है। ३. अतारतार : शास्त्रों के ठीक प्रकार से ऊहापोह के बिना उत्पन्न होनेवाला ज्ञान ही 'अतारतार' नामक असिद्धि होता है, जो अशक्ति का भेद है। ४. असदामुदित : दक्षिणा न देने के कारण असन्तुष्ट गुरु से उत्पन्न वासना आदि का उच्छेदन होना ही 'असदामुदित' नामक असिद्धि है। ५. अरम्यक् : विरोधी व्यक्ति की सलाह के अभाव में होनेवाला विपरीत ज्ञान ही 'अरम्यक् नामक असिद्धि, अशक्ति का भेद है । ६. अप्रमोद : आध्यात्मिक दुःखों की पीडा से भी, संसार से उद्विग्न न होने के कारण विवेकज्ञान के प्रति जिज्ञासा का न होना ही 'अप्रमोद' नामक असिद्धि होती है । ७. अमुदित : आधिभौतिक दुःखों से पीडित होने पर उनसे छुटकारा पाने की जिज्ञासा का न होना 'अमुदित' नामक असिद्धि कही गई है। ८. आमोदमान : आधिदैविक दुःखों से बुरी तरह परेशान होने पर भी कामिनी आदि में आसक्ति के कारण उसके निवारणार्थ इच्छा का न होना 'आमोदमान' असिद्धि मानी गई है।
इस प्रकार ग्यारह इन्द्रियवध, नौ अतुष्टियाँ एवं उपरोक्त आठ असिद्धि इन सबको मिलाकर कुल अट्ठाईस प्रकार की अशक्ति कही गई है। जिन्हें इस प्रकार भी प्रदर्शित किया जा सकता है -
आध्यात्मिक्यश्चतस्रः प्रकृत्युपादानकालभागाख्याः ।
बाह्या विषयोपरमात्, पञ्चच नव तुष्टयोऽभिमताः ॥५०॥ भावार्थ : प्रकृति, उपादान, काल और भाग ये चारो प्रकार के आध्यात्मिक और (पाँच) विषयो के शमन से = वैराग्य से होती पाँच प्रकार के बाह्य ऐसे नौ प्रकार की तुष्टि मानी गई है।
विशेषार्थ : किसी भी वस्तु, व्यक्ति, विचार आदि के सम्बन्ध में परेशान, बेचैन न होना, संतोष कर लेना ही तुष्टि का स्वरूप होता है। ये आन्तरिक और बाह्यरुप में प्रथमतः दो प्रकार की होती है। पुनः आन्तरिक के चार प्रभेद (प्रकृति, उपादान, काल और भाग) होते हैं। बाह्य तुष्टियों के पांच प्रभेद (पार, सुपार, पारापार, अनुत्तमाम्भस् और उत्तमाम्भस्) गिनाए गए है। इनका हम यहाँ क्रमशः विवेचन प्रस्तुत करते है --
(क) आभ्यन्तर (आध्यात्मिक) चार तुष्टियाँ : आत्मतत्त्व से भिन्न प्रकृति आदि को ही आत्मा अथरा विवेकज्ञान मानकर संतुष्ट हो जाना तथा विवेकज्ञान के लिए श्रवण, मनन आदि प्रयत्नों का न करना ही आध्यात्मिक तुष्टि कहलाती है, क्योंकि ये प्रकृति से भिन्न आत्मा के सम्बन्ध में होती हैं । ये चार प्रकार की है --
१. प्रकति : 'विवेक-ज्ञान' वस्ततः प्रकति का ही एक परिणाम है. जिसे प्रकति स्वयं उत्पन्न करती है। इसलिए विवेकज्ञान हेतु ध्यान आदि का अभ्यास करना व्यर्थ अपने शरीर को कष्ट देना है। अत: कुछ भी प्रयास करने की आवश्यकता नहीं है। इस प्रकार उपदिष्ट शिष्य को प्रकृति के सम्बन्ध में जो तुष्टि होती है, उसे ही प्रकृति नामक तुष्टि कहा गया है। इसी का दूसरा नाम 'अम्भस्' भी है, क्योंकि यह जल के समान निर्मल शाब्दिक उपदेश के समान होती है।
२. उपादान : 'विवेकज्ञान' वस्तुतः संन्यास से होता है। अतः संन्यास धारण करना चाहिए। इसके लिए ध्यान आदि की कोई आवश्यकता नहीं है। इस प्रकार के उपदेश से होने वाली तुष्टि को 'उपादान' कहा जाता है।
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