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षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, सांख्यदर्शन का विशेषार्थ
विशेषार्थ : इस कारिका में बौद्धिक सृष्टि के अन्तर्गत परिगणित सभी तत्त्वो का विपर्यय, अशक्ति, तुष्टि एवं सिद्धि नामक चार भागों में विभाजित करके उसे प्रत्ययसर्ग (बुद्धि की सृष्टि) कहा है। सत्त्व, रज और तमस् ये तीन गुणों की विषमस्थिति एवं एकदूसरे को दबाने के स्वभाव के कारण चार प्रकार के इस प्रत्ययसर्ग के कुल मिलाकर पचास भेद माने गए । जिनकी विस्तार से अग्रिम कारिका में गणना की है। यहाँ हम चार प्रकार के प्रत्यय सर्ग का उल्लेख कर रहे है ।
(१) विपर्यय : मिथ्याज्ञान को विपर्यय कहा जाता है। (२) अशक्ति : मन, बुद्धि एवं अहंकाररुप त्रिविध अन्त:करण एवं १० इन्द्रियाँ रुप बाह्यकरणों में से किसी एक अथवा अनेक की विकलता के कारण उत्पन्न असामर्थ्य से उसके द्वारा अपने विषय को ग्रहण न कर पाना ही अशक्ति है । संक्षेप में ज्ञानप्राप्ति के सामर्थ्य के अभाव को अशक्ति कहा जाता है। (३) तुष्टि : पुरुष एवं पुरुष की भिन्नता को जानने के बाद भी अयथार्थ उपदेश से संतुष्ट होकर श्रवण, मनन आदि के द्वारा विवेकज्ञान के लिए प्रयत्न न करना ही तुष्टि है (तुष्टिर्मोक्षोपायेषु वैमुख्यम् - जयमंगला ) । ऐसा व्यक्ति पुरुषरुप मुख्य ज्ञेयतत्त्व से हटकर किसी अतत्त्व से संतुष्ट होकर आत्मज्ञान के लिए प्रवृत्त नहीं होता है। यह नौ प्रकार की मानी गई है, जिसका विस्तार से उल्लेख आगे किया जायेगा । (४) सिद्धि : श्री जयमंगलाकारने ज्ञानप्राप्ति को ही सिद्धि माना है (सिद्धिर्ज्ञानप्राप्तिः) । दुःख की निवृत्ति ही ज्ञान का मुख्य उद्देश्य है। अतः सिद्धि की प्राप्ति दुःखनिवृत्ति का कारण है । स्थाणु को स्थाणु समजना ही ज्ञान है। ठीक इस प्रकार पुरुष और प्रकृति को अलग-अलग देखना ही ज्ञानरुप सिद्धि है, क्योंकि सिद्धि का अन्तर्भाव ज्ञान में ही होता है। पूर्वोक्त तीन प्रत्ययसर्ग सिद्धि में बाधक है। सिद्धि की संख्या आठ मानी गई है, जिनका ५१ वीं कारिका में विस्तार से उल्लेख किया गया है।
अब प्रत्ययसर्ग की विस्तृत व्याख्या का उपक्रम करते हुए सर्वप्रथण चारों के प्रतिभेदों का नामोल्लेख करते है
पञ्च विपर्ययभेदा भवन्त्यशक्तिश्च करणवैकल्यात् ।
अष्टाविंशतिभेदा, तुष्टिर्नवधाऽष्टधा सिद्धिः ॥४७॥
भावार्थ : विपर्यय के पाँच भेद है । इन्द्रियो की विकलता के कारण अशक्ति अठ्ठाईस प्रकार की है । तुष्टि नौ प्रकार की है और सिद्धि आठ प्रकार की है।
अब विपर्यय के प्रतिभेदों की विस्तृत चर्चा करते है -
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भेदस्तमसोऽष्टविधो मोहस्य च दशविधो महामोहः । तामिस्त्रोऽष्टादशधा, तथा भवत्यन्धतामिस्त्रः ॥४८॥
भावार्थ : (विपर्यय के पाँच भेद - तमस्, मोह, महामोह, तामिस्र और अंधतामिस्र है । उसमें से अनुक्रम से) तमस् के आठ, मोह के भी आठ, महामोह के दस, तामिस्र के अठारह और अंधतामिस्र के भी अठारह प्रकार है ।
विपर्यय के भेद-प्रतिभेद का विस्तृत वर्णन अब बताते है ।
(१) तमस् : आत्मा से भिन्न प्रकृति, महत्, अहंकार और पञ्चतन्मात्राओं को ही आत्म मान लेना पहला तमस् नामक भेद है | जिसे अविद्या भी कहते है । योगसूत्र में इसे ही अन्य चार भेदों का मूल माना है। वहां इसकी परिभाषा करते हुए - ‘अनित्य, अशुचि, दुःख तथा अनात्म को क्रमशः नित्य, शुचि, सुख और आत्मा मान लेना ही अविद्या कहा गया है। प्रकृति के मूल आठ भेद - मूलप्रकृति, महत्, अहंकार और पञ्चतन्मात्राएं। यद्यपि ‘पुरुष’ नहीं है इन्हीं में से किसी एक को पुरुष मान लेना ही आठ प्रकार की अविद्या अथवा तमस् के भेद है। प्रकृति का ज्ञान रखने और वैराग्य होने पर भी पुरुष के विषय में इस प्रकार का अज्ञान होने के कारण उपासक को अपवर्ग की
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