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षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, सांख्यदर्शन का विशेषार्थ
इससे विपरीत कलल आदि भाव कार्य अर्थात् स्थूलशरीर पर आश्रित होकर रहते है, जो इससे भिन्न है। विशेष आगे बताया ही है। अब धर्मादि भाव करण द्वारा कैसा कार्य सम्पन्न किया जाता है वह अग्रिम कारिका में बताते है।
धर्मेण गमनमूर्ध्वं गमनमधस्ताद् भवत्यधर्मेण ।
ज्ञानेन चाऽपवर्गो विपर्ययादिष्यते बन्धः ॥४४॥ भावार्थ : धर्म से उर्ध्वगति और अधर्म से अधोगति होती है। ज्ञान से मोक्षप्राप्ति होती है और उससे विपरीत (= अज्ञान) से बंधन मिलता है। . लोक दो प्रकार के है। (१) ऊर्ध्वलोक, (२) अधोलोक। ऊर्ध्वलोक की सात संख्या मानी गई है। भूः, भुवः, स्वः, महः, जनः, तपः तथा सत्यालोक (बह्मलोक) ये उत्तरोत्तर श्रेष्ठ माने गये है। अधोलोक की संख्या भी सात मानी गई है। अतल, वितल, सुतल, रसातल, तलातल, महातल और पाताल।
बुद्धि में स्थित धर्म के प्रभाव से व्यक्ति ऐसे कार्य करता है, जिनसे उसे ऊर्ध्वगति की प्राप्ति होती है। बुद्धि में स्थित अधर्म के प्रभाव से व्यक्ति ऐसे कार्य करता है, जिनसे उसे अधोगति की प्राप्ति होती है।
बुद्धि में स्थित ज्ञानरुप भाव द्वारा व्यक्ति को मोक्ष की प्राप्ति होती है। व्यक्त, अव्यक्त और ज्ञ, इन्हें भली प्रकार अलग-अलग रुप में समझना ही ज्ञान है। मोक्ष की तीन स्थितियां मानी गई है। जो ज्ञान के परिणाम स्वरुप होती है। (क) ज्ञान की अवस्था : इसमें व्यक्ति शास्त्र के अध्ययन एवं गुरु के उपदेश द्वारा व्यक्त, अव्यक्त और ज्ञ को भलीप्रकार जान लेता है। (ख) विषयो के प्रति विराग : तत्त्वज्ञान से इसमें उसकी सांसारिक विषयो के प्रति राग की निवृत्ति हो जाती है। किन्तु शरीर तब तक कार्य करता रहता है , जब तक उसके पूर्वकृत कर्मो के... फल का क्षय नहीं होता है। (ग) मोक्ष की अवस्था : पूर्वकृत कर्मो के क्षय के अनन्तर शरीरपात होने पर ज्ञानी का सूक्ष्मशरीर पुनः नूतनशरीर को धारण नहीं करता, दूसरे शब्दो में संसरण नहीं करता, अपितु अपने मूल कारण प्रकृति में लय को प्राप्त हो जाता है। तथा पुरुष अपने मूल आत्मस्वरुप में अवस्थित हो जाता है। वहां कैवल्य है। इनमें पहले दो अवस्थाएं 'जीवन्मुक्त' तथा तीसरी 'विदेह' कही गई है। ज्ञान से विपरीत अज्ञानरुप भाव के द्वारा सांसारिक बन्धनों की प्राप्ति होती है। ___ बुद्धि के आठ भावो में से चार के कार्यो का विस्तार से उल्लेख करने के बाद अग्रिम कारिका में ग्रंथकारने शेष चार भावों के कार्यो का उल्लेख किया है -
वैराग्यात् प्रकृतिलयः, संसारो भवति राजसाद्रागात् ।
ऐश्वर्यादविघातो, विपर्ययात् तद्विपर्यासः ॥४५॥ भावार्थ : वैराग्य से प्रकृति में लय होता है। रजो मय राग से संसरण होता है। ऐश्वर्य से अविघात (इच्छा की निर्विघ्न पूर्ति) होती है। और उससे विपरीत (-अनैश्वर्य) से विघ्न होता है - इच्छापूर्ति में विघ्न आता है।
बुद्धि के आठ भावों एवं उनके कार्यो का उल्लेख करने के पश्चात् उन सभी का निम्नप्रकार से चार भागों में वर्गीकरण करके विशेष विवेचन प्रस्तुत करने के लिए अग्रिम कारिका का अवतरण करते है -
एष प्रत्ययसर्गो विपर्ययाशक्तितुष्टिसिद्धयाख्यः ।
गुणवैषम्यविमर्दात् तस्य भेदास्तु पञ्चाशत् ॥४६॥ भावार्थ : यह बुद्धिसर्जित संसार विपर्यय, अशक्ति, तुष्टि और सिद्धि से पहचाना जाता है। गुणो की विषमता के कारण उनके (परस्पर) विमर्द से उसके पचास भेद होते है।
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