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षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, सांख्यदर्शन का विशेषार्थ
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चित्रं यथाऽऽश्रयमृते स्थाण्वादिभ्यो विना यथाच्छाया।
तद्वद्विना विशेषैर्न तिष्ठति निराश्रयं लिङ्गम् ॥४१॥ भावार्थ : जैसे आश्रय के बिना चित्र रह सकता नहीं है और खम्भे (स्थंभ) इत्यादि के बिना छाया नहीं रह सकती, वैसे विशेष (स्थूल शरीर अथवा सूक्ष्म शरीर) के आश्रय बिना लिंग रह सकता नहीं है। अब प्रयोजन बताते हुए अग्रिम कारिका में प्रतिपादन करते है कि,
पुरुषार्थहेतुकमिदं निमित्तनैमित्तिकप्रसङ्गेन ।
प्रकृतेर्विभुत्वयोगान्नटवद् व्यवतिष्ठते लिङ्गम् ॥४२॥ भावार्थ : पुरुष के (भोग और अपवर्गरुप) प्रयोजन के लिए (प्रवृत्त ऐसा) लिंग शरीर निमित्त (धर्मादि आठ भाव कि जो कारण है) और नैमित्तिक (स्थूल शरीर कि जो कार्य) के प्रसंग से तथा प्रकृति के विभुत्व के योग से नट की तरह व्यवहार करता है। ___ प्रस्तुत कारिका में सूक्ष्मशरीर (लिङ्गम्) को अभिनेता के समान व्यवहार करनेवाला बताया है। जिस प्रकार अभिनेता निर्देशक के निर्देशो अनुसार भिन्न-भिन्न वेष धारण करके दर्शको के सामने आता है और दर्शको को आनन्द की प्राप्ति कराता है। ठीक इस प्रकार लिङ्गशरीर (सूक्ष्मशरीर) विश्व के कण-कण में व्याप्त, अद्भूत महिमा एवं सामर्थ्य से युक्त प्रकृति द्वारा निर्मित एवं आदेशित होकर, बुद्धि में स्थित धर्म-अधर्म आदि भावों के कारण (अपेक्षा से) उनके अनुरुप कूकर, शूकर, कीट, पतंग, देव, मानव अथवा दानव आदि योनियों में छ: कोष वाले सूक्ष्मशरीर को धारण करके पुरुष के भोग एवं अपवर्गरुप कार्य को सम्पन्न करता है।
जिन निमित्त एवं नैमित्तिक (कारण एवं कार्य) की चर्चा पूर्व कारिका में की गई उनके स्वरुप, भेद तथा आश्रय आदि का कथन करने के लिए अग्रिम कारिका का अवतरण करते है -
सांसिद्धिकाश्च भावाः प्राकृतिका वैकृतिकाश्च धर्माद्याः ।
दृष्टाः करणाश्रयिणः कार्याश्रयिणश्च कललाद्याः ॥४३॥ भावार्थ : धर्म इत्यादि (धर्म-अधर्म आदि आठ) भावो-सांसिद्धिक अर्थात् प्राकृतिक (= जन्मजात, स्वाभाविक) और वैकृतिक (=प्रयत्नसाध्य) ऐसे दो प्रकार के है । वे (भावो)करण (= बुद्धि) के सहारे रहे हुए दिखते है और गर्भपिण्ड इत्यादि कार्य (= स्थूलशरीर) के सहारे रहते है।
विशेषार्थ : लिङ्गशरीर (सूक्ष्मशरीर) जिन भावो से अधिवासित होकर लोक-लोकान्तर में विभिन्न योनियों में आदिकाल से प्रलयकालपर्यन्त संसरण करता है। वे भाव प्रथमतः दो प्रकार के होते है - (१) सांसिस से सिद्ध (जन्मजात) एवं सहज, (२) असांसिद्धिक - बाह्य उपाय - अनुष्ठान आदि के द्वारा सम्पादित ।
इनमें भी सांसिद्धिक पुनः दो प्रकार के होते है। (१) जो जन्म से ही रहते है, (२) जो जन्म के कुछ समय बाद स्वतः प्रकृतिरुप में उद्बुद्ध हो जाते है। प्रथम को सांसिद्धिक तथा दूसरे को प्राकृतिक कहा गया है।
यहाँ 'धर्माद्याः' पद में आदि शब्द का प्रयोग धर्म-अधर्म, ज्ञान-अज्ञान, विराग-राग, ऐश्वर्य-अनैश्वर्य, बुद्धि के चार सात्त्विक एवं चार तामसिक भावो का भी कथन करने के लिए किया गया है।
यहाँ प्रयुक्त 'करण' पद से त्रयोदश करण पैकी बुद्धि का ग्रहण करना है। क्योंकि भाव बुद्धि का धर्म है, अन्य अहंकारादि का धर्म नहीं है। अतः इन भावों को करण अर्थात् बुद्धि के आश्रय मानना ही उचित है। कहा भी है कि, (बुद्धिरेव करणम् तदाश्रयिणः)।
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