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________________ ३०० षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, सांख्यदर्शन का विशेषार्थ बाह्यकरणो पदार्थ को ग्रहण करके उसको मन के पास पेश करते है । मन अहंकार के साथ मिलकर उसको बुद्धि के पास उपस्थित करते है और वहाँ ही प्रकाश होता है - पदार्थ का ज्ञान होता है। अध्यवसाय होता है। इस तरह से सत्त्वप्रधान बुद्धि सर्वकरणो में मुख्य है, क्योंकि पदार्थ का ज्ञान वहाँ ही प्रकाशित होता है । बुद्धि के सिवा बारह करण, कि जो गुणो के ही विकार है और अपने अपने विशेष लक्षण रखते है । वे अपने सभी विषय पुरुष के लिए दीपक की तरह प्रकाशित करके बुद्धि को सोंपते है । अब अगली कारिका में तर्कपूर्वक बुद्धि की प्रधानता बताते हुए कहते है कि, सर्वं प्रत्युपभोगं यस्मात् पुरुषस्य साधयति बुद्धिः । सैव च विशिनष्टि पुनः प्रधानपुरुषान्तरं सूक्ष्मम् ॥३७॥ भावार्थ : बुद्धि पुरुष के सभी विषयो के उपभोग को सिद्ध कर देती है - सम्पादित कर देती है। वैसे ही बाद में वही (बुद्धि) प्रधान और पुरुष के बीच का सूक्ष्मभेद करके दिखाती है। इसलिए ( वही मुख्य है ।) दो तर्क से बुद्धि सभी करणो में प्रधान सिद्ध होती है । (१) बुद्धि अकेले ही पुरुष के सभी प्रकार के भोगों को सम्पादित करती है । (२) विवेक - ज्ञान की स्थिति में बुद्धि ही पुरुष एवं प्रकृति की भिन्नता प्रतिपादित करती है। इसलिए बुद्धि मुख्य है । अब तमोगुणप्रधान अहंकार से उत्पन्न होनेवाले पञ्चतन्मात्रा का स्वरुप बताते है I तन्मात्राण्यविशेषास्तेभ्यो भूतानि पञ्च पञ्चभ्यः । एते स्मृता विशेषाः शान्ता घोराश्च मूढाश्च ॥३८॥ भावार्थ : तन्मात्रायें अविशेष (= सूक्ष्म) कही जाती है। उस पाँच तन्मात्राओ में से पांचभूत उत्पन्न होते है । उसको विशेष कहा जाता है। वे शांत, घोर और मूढ है। विशेष स्वरुप आगे बताया ही है । इस प्रकार स्थूल एवं सूक्ष्म विषयो के स्वरुप एवं संख्या का उल्लेख करने के बाद स्थूलविषयों के अवान्तर भेदों का निरुपण करते है - सूक्ष्मा मातापितृजा: सह प्रभूतैस्त्रिधा विशेषाः स्युः । सूक्ष्मास्तेषां नियता मातापितृजा निवर्तन्ते ॥ ३९॥ भावार्थ : विशेष (स्थूल) तीन प्रकार के है। (१) सूक्ष्म शरीर, (२) माता-पिता से उत्पन्न हुए शरीर और (३) महाभूत। उसमें सूक्ष्म शरीर नियत (अर्थात् नियम से कुछ समय तक रहनेवाले है) और मातापिता से उत्पन्न हुए शरीर (मृत्यु के समय) नष्ट हो जाते है । अब इसमें से सूक्ष्मशरीर की विशेषताओं का निरुपण करते है - पूर्वोत्पन्नमसक्तं नियतं महदादिसूक्ष्मपर्यन्तम् । संसरति निरुपभोगं भावैरधिवासितं लिङ्गम् ॥४०॥ भावार्थ : आदि सर्ग में उत्पन्न, असक्त (अव्याहत - किसी से रोका न जा सके वैसा) महद् इत्यादि से लेकर सूक्ष्म (तन्मात्रायें) तक के (अठारह) तत्त्वो का बना हुआ (स्थूल शरीर के अभाव में) उपभोग करने के लिए असमर्थ ऐसा (धर्माधर्म, ज्ञानाज्ञान, वैराग्यावैराग्य, ऐश्वर्य - अनैश्वर्य ऐसे आठ) भावो से अधिवासित होके लिंग (शरीर), (स्थूलशरीरो में) संसरण करता है । अब सूक्ष्मशरीर के आधार का स्वरुप एवं महत्त्व का कथन करने के लिए अग्रिम कारिका का उल्लेख करते है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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