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षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, सांख्यदर्शन का विशेषार्थ
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वेदांतीयो ने एक ही आत्मा है, ऐसा कहा है। जबकि न्याय-वैशेषिक मत में अनेक है, ऐसा स्वीकार किया गया है। सांख्यमत पुरुष बहुत्व का है। उस अनुसार से आत्मा अनेक है और वह अनेक किन कारणो से है यह समजाया गया है।
यदि आत्मा एक ही होता तो सभी देहधारी एक साथ ही जन्म पाते और जीवनकाल दरमियान सब का एक समान ही व्यवहात्-वर्तन होता । यहाँ आत्मा के जन्म-मरण की बात नहीं है। वह तो अजन्मा और अविनाशी है। परन्तु आत्मा के स्थूलशरीर के साथ का सम्पर्क और त्याग को ही जीवन और मरण माना जाता है। ___ परन्तु वेदांतीयो का मानना है कि, उपर के कारण से आत्मा को अनेक मानने की जरुरत नहीं है। आत्मा एक ही है, परन्तु उपाधिभेद से वह अनेक लगता है। जैसे एक ही आकाश उपाधिभेद से घटाकाश, महाकाश इत्यादि रुप में दिखता है। वैसे ही यहा समजना चाहिए। ___ इस पूर्वपक्ष को सांख्य उत्तर देते है कि, यदि नानात्व (वैविध्य) का उपाधिभेद से स्वीकार किया जायेगा तो वह सिद्धांत सर्वत्र स्वीकार करना पडेगा । यदि शरीर यह आत्मा की उपाधि है, तो हाथ, पैर इत्यादि अवयव ये शरीर की (संघात की) उपाधियां है। इसलिए इस अवयवो का आविर्भाव का जन्म और नाश मरण मानना पडेगा। और बाद में जन्म-मरण की व्यवस्था नहीं रहेगी। उपरांत, एक अखंड आत्मा में उपाधिभेद से यदि नानापन (वैविध्य) का स्वीकार किया जाये, तो भी आत्मा में विरुद्धधर्मो का आरोपण करना पडे वह उचित नहीं है। वैसे ही अंत:करण इत्यादि को नाना प्रकार के मानेंगे तो भी प्रत्येक अंतःकरण में एक ही आत्मा होने से उसको परस्पर विरुद्ध अनुभव नहीं हो सकेगा।
शंका : श्रुति में तो आत्मा एक माना गया है।
समाधान : जहाँ आत्मा को एक माना गया है, वहाँ उसको जातिरुप से एक माना गया है। यह बात सांख्यसूत्र १।१५४ में कही गई है कि "नाद्वैतश्रतिविरोधो जातिपरत्वात" अद्वैतप्रतिपादक श्रति का विरोध नहीं होता। (क्योंकि) वे पद जातिपरक है। इस तरह से आत्मा के अनेकत्व में श्रुति का भी विरोध नहीं है।
(२) यदि आत्मा एक हो, तो सभी की प्रवृत्तियां एक समय पे और एकसमान होनी चाहिए । परन्तु ऐसा नहीं है। कोई अच्छे कार्य करता है। उसी समय में दूसरा कोई उससे विपरित कार्य करते ही होते है। उत्तम, मध्यम और अधम प्रवृत्तियां एक समय पे होती दिखाई देती है। इसलिए पुरुष बहुत्व सिद्ध होता है। ___ (३) कुछ प्राणीयो में सत्त्वगुण मुख्य प्रवर्तित होता दिखाई देता है। कुछ में रजोगुण, तो कुछ में तमोगुण । इस तरह से तीन गुणो के तारतम्य का भेद एक ही आत्मा में संभवित नहीं हो सकता। इसलिए भी पुरुष बहुत्व सिद्ध होता है।
अब पुरुषबहुत्व का प्रतिपादन करके अनन्तर कारिका में विवेकज्ञान में उपयोगी पुरुष के अन्य धर्मो का निरुपण करते है। "तस्माच्च विपर्यासात्सिद्धं साक्षित्वमस्य पुरुषस्य ।
कैवल्यं माध्यस्थ्यं द्रष्टृत्वमकर्तृभावश्च ॥१९॥" भावार्थ : ये त्रिगुणादि से विपरित धर्मो होने से पुरुष का साक्षीपन, कैवल्य, मध्यस्थपन, द्रष्टापन और अकर्तृत्व सिद्ध होता है।
पुरुष तीनो गुणो से मुक्त है। वह निर्गुण है और इसलिए वह (१) साक्षी है। क्योंकि त्रिगुणरहित होने से उसको कोई क्रिया करनी नहीं होती है । उसको कोई विषय में स्वार्थ नहीं है। जगत में चलती परिवर्तन की रफतार वह केवल देखा करता है। वह द्रष्टा है। वह स्वयं परिवर्तनो से मुक्त है।
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