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________________ २९४ षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, सांख्यदर्शन का विशेषार्थ (२) इसी तरह से पुरुष में कैवल्य भी सिद्ध होता है। कैवल्य अर्थात् संपूर्ण और शाश्वत अभाव । सुख-दुःख और मोह ये तो तीन गुणो का ही स्वभाव है। पुरुष तो उससे पर है और इसलिए उसका कैवल्य स्वाभाविक है। उसको बंधन नहीं है। वह "केवल" पुरुष I (३) इस कैवल्य के कारण उसमें माध्यस्थ्य-तटस्थता है, वह भी सिद्ध होता है। (४-५) त्रिगुण से रहित होने से वह अकर्ता है। मात्र द्रष्टा ही है। यह भी समजा जा सकता है। उदासीन होते हुए भी पुरुष कर्ता किस प्रकार होता है । इसका प्रतिपादन आगे की कारिका में करते है " तस्मात्तत्संयोगादचेतनं चेतनावदिव लिङ्गम् । कर्तृत्वेऽपि तथा कर्त्तेव भवत्युदासीनः ॥२०॥ भावार्थ : इसलिए इस संयोग के कारण अचेतन (महदादि) लिंग सचेतन जैसा लगता है और गुणो में कर्तृत्व होने पर भी उदासीन पुरुष कर्ता जैसा होता है - कर्ता के समान प्रतीत होता है । पुरुष 'और प्रकृति तात्त्विक रुप से ही परस्पर से अत्यंत भिन्न है। एक चेतन और अन्य जड है। एक निर्गुणअकर्ता और केवल द्रष्टा है, तो अन्य त्रिगुणात्मक, विकारशील और इसलिए अन्य के दर्शन का विषय है । परन्तु वे दोनो परस्पर किसी भी तरह से संबंध रखते ही नहीं है वैसा नहीं है। हमको होनेवाला सृष्टि का अनुभवो में इस भय का सहयोग है । प्रकृति चाहे जड हो, परंतु उसका एक महत्त्व का तत्त्व है सत्त्व (बुद्धि) । सत्त्व का धर्म है प्रकाश । परन्तु वह प्रकाश स्वयंभू नहीं है। वह पुरुष के सान्निध्य से प्रकाशित होता है और बाद में प्रकाश का परावर्तन करता है। यह परावर्तित प्रकाश प्रकृति का हो वैसा भास होता है और इसलिए वह अचेतन होने पर भी चेतन हो ऐसा लगता है । (तत् संयोगात् अचेतनं चेतनावदिव लिङ्गम्) प्रकृति में रजोगुण है । वह चल है, प्रवृत्तिशील है । रजस् के कारण प्रकृति में क्रिया होती है और इसलिए गुण ही कर्ता है। परन्तु यह क्रिया भी चेतनपुरुष के सान्निध्य में होती है । इसलिए अकर्ता होने पर भी वह पुरुष जैसे कि कर्ता हो ऐसी भ्रान्ति होती है । परस्पर विरोधी स्वभाववाले ये दोनो पदार्थ किस प्रकार मिलकर कार्य करते है ? । इस जिज्ञासा का उत्तर देते हुए प्रस्तुत कारिका में कहते है कि, 1 "पुरुषस्य दर्शनार्थं कैवल्यार्थं तथा प्रधानस्य । पंग्वन्धवदुभयोरपि संयोगस्तत्कृतः सर्गः ॥ २१ ॥" भावार्थ : पुरुष का (प्रधान के) दर्शन के लिए तथा प्रधान का (पुरुष का) कैवल्य के लिए ऐसे दोनों का संयोग अंध और लंगडे के संयोग की तरह होता है । और उस संयोग में से सृष्टि का सर्जन होता है । कारिका का भाव स्पष्ट है । और विशेष आगे भी बताया गया है। प्रकृति - पुरुष का स्वरुपादि तथा उनके संयोग का उद्देश्य बताकर, अब प्रस्तुत कारिका में सांख्यमतानुसार सृष्टिक्रम का प्रतिपादन करते है - “प्रकृतेर्मर्हांस्ततोऽहङ्कारस्तस्माद् गणश्च षोडशकः । तस्मादपि षोडशकात् पञ्चभ्यः पञ्चभूतानि ॥२२॥' भावार्थ : प्रकृति में से महान्, उसमें से अहंकार, अहंकार में से सोलह तत्त्वो का समुदाय, उन सोलह तत्त्वो में से पाँच (= तन्मात्रा) पांचभूत (उत्पन्न होते है ।) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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