SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 405
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २९२ षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, सांख्यदर्शन का विशेषार्थ तरह से हो सकेगा ? समाधान : ऐसा कोई नियम नहीं है कि सक्रिय ही क्रिया करा सके। कई बार केवल सामीप्य से भी क्रिया होती है। जैसे कि, चुम्बक की समीपता लोह में क्रिया उत्पन्न करती ही है । (४) भोक्तृभावात् : यह त्रिगुणात्मक जगत भोग्य है। इसलिए उसका कोई भोक्ता आवश्यक है। हम सबको ऐसी प्रतीत होती है कि हम इस जगत का अनुभव कर रहे है । वह अनुभव करनेवाला स्वयं अनुभव से अलग है । वही भोक्ता है और जगत उसके अनुभव का पात्र - भोग्य है। वही चेतन पुरुष है। पल-पल में परिवर्तन पाते इस जगत का और उसके मूलकारण अव्यक्त प्रकृति का अनुभव करता है । से यहाँ पुरुष बुद्धि द्वारा भोक्ता बनता है, वह याद रखना । इसके उपर से समजा जा सकता है कि पुरुष वह चैतन्य युक्त ऐसा कोई तत्त्व नहीं है, परन्तु स्वयं चैतन्य है और वह शुद्धचैतन्य भोग से पर है। सांख्यमत अनुसार से चैतन्य का प्रतिबिंब “सत्त्व" के उपर पडता है और इसलिए "सत्त्व" (बुद्धि) जगत का अनुभव करती है। इस तरह से देखने से चेतनयुक्त बुद्धि और चैतन्य इन दोनो का भेद स्पष्ट होता है। शंका : चार्वाक जैसे भूतचैतन्यवादी ऐसी शंका करते है कि, यदि ऐसा ही हो, तो प्रकृति को ही भोक्ता क्यों न माने ? उसका ही अंश ऐसी बुद्धि किसी का प्रतिबिंब ग्रहण करे और बाद में अनुभव करे, ऐसी लम्बी प्रक्रिया की क्या आवश्यकता है ? | चीनी की चासनी या ऐसे बहोत पदार्थों में उफान या खमीर अपने आप ही नहीं आता ? अनुभव भी प्रकृति में इस तरह से स्वत: है, ऐसा मानना ज्यादा उचित नहीं है ? समाधान : उफान आया है वैसा कौन अनुभव करता है ? दूध का दहीं होता है परन्तु क्या दूध को उसका ज्ञान है ? जिनको अनुभव हुआ हो वह, इतना ज्ञान तो निश्चित रखता है कि "मुझे अनुभव हो रहा है।" जड़ पदार्थों में यह भान स्वतंत्र रूप से संभव हो सकता नहीं है। अनुभव की असर भी अनुभवकर्ता में देख सकते है । जैसे कि “में सुखी हूँ” । “में दुःखी हूँ" । इसलिए केवल प्रकृति को भोग्य और भोक्ता मानना उचित नहीं है। वह केवल भोग्य है । पुरुष भोक्ता है । (५) कैवल्यार्थं प्रवृत्तेश्च : कैवल्य यानी मोक्ष । कैवल्यप्राप्ति ही महत्त्व का पुरुषार्थ है और मोक्ष पाना यहीं परम ध्येय है । इस दुःख में से मुक्त होना जो चाहता है, वह स्वयं दुःखस्वरुप प्रकृति से अलग हो सकेगा। और वही चेतन आत्मा है, पुरुष है । परन्तु इसके लिए प्रवृत्ति कौन करता है ? पुरुष नहीं क्योंकि वह तो असंग है। शुद्ध चैतन्य को दुःख संभवित नहीं है। बंधन भी नहीं है । इसलिए उसके लिए मोक्ष पाने जैसा भी नहीं है। अनुभव तो बुद्धि में प्रतिबिंबित हुए चेतन का है और इसलिए उसमें से छूटने का प्रयत्न प्रधान अर्थात् प्रकृति को करना है, ऐसा श्री माठर और श्री गौड मानते है। परंतु श्री वाचस्पति यह प्रवृत्ति शास्त्रो की और महर्षियो की है ऐसा मानते है । अब प्रस्तुत कारिका में सांख्यदर्शन का 'पुरुषबहुत्व' नाम का महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त का प्रतिपादन करते है । “जननमरणकरणानां प्रतिनियमादयुगपत्प्रवृत्तेश्च । पुरुषबहुत्वं सिद्धं त्रैगुण्यविपर्ययाश्चैव ॥१८॥" भावार्थ : पुरुष अनेक है, वैसा भी सिद्ध होता है। क्योंकि (१) जन्म - मृत्यु और इन्द्रियो की अलग-अलग निश्चित प्रकार की व्यवस्था है । (२) सभी (प्राणीयो ) की प्रवृत्ति (एक ही समय में) एकसमान नहीं होती है । और (३) प्रत्येक देहधारी जीव में तीनो गुण की भिन्न-भिन्न व्यवस्था दिखाई देती 1 भारतीय षड्दर्शनो में प्रत्येक दर्शन में एक या दूसरे रुप में आत्मा के अस्तित्व का स्वीकार किया है। प्राणीमात्र में यह आत्मा बसता है । इस विषय में भी मतभेद नहीं है। परंतु आत्मा एक है या प्रत्येक शरीर में भिन्न-भिन्न होने से अनेक है। यह चर्चा का मुख्य विषय रहा है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy