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षड्दर्शन समुञ्चय भाग-१, सांख्यदर्शन का विशेषार्थ
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परिणमित होते है। यह प्रथम प्रकार की प्रवृत्ति हुई । परन्तु जब सृष्टिसर्जन का प्रारंभ होता है, तब यह साम्यावस्था तूटती है। वहां विषमावस्था आती है उसका नाम ही "समुदय" है।
तीनो गुण एकदूसरे के साथ अलग-अलग प्रमाण में समुदय पाते है और सर्जन का प्रारंभ होता है। एक ही प्रकृति में से यह सब सर्जन होता है। परन्तु उसमें जो वैविध्य दीखता है। उसका कारण इन तीन गुणो का कमज्यादापन है । कोई एक ही गुण स्वतंत्र रुप से कुछ नहीं कर सकता । दूसरे दो के साथ रहकर ही वह प्रवृत्ति होती है और उनके मिलन में वह तारतम्य है। उसके परिणाम से ही नानापन (वैविध्य) होता है। यह बात पानी के दृष्टांत से स्पष्ट करते है। आकाश में रहे हुआ बादलो में से पानी तो एकसमान ही गिरता है। उसका स्वाद भी एक ही प्रकार का होता है। परन्तु अलग अलग वृक्ष के मूल में सिंच के उस उस फलो में वह अलग अलग रस में परिणमित होता है। उसी तरह से एक ही प्रधान में से आविर्भाव पाकर समस्त जगत विविध रुपोवाला बनता है। ___ इस तरह से बाह्यरुप से दिखती इस सृष्टि की विविधता के मूल में तो अव्यक्त की एकता ही रही हुई है। एक ही सच्चा और एकमेव कारण है। अन्य सब उसके विकार है। जो विकार है वह यक्त है। परन्तु जो अविकारी है वही अव्यक्त है।
अव्यक्तरुप मूलकारण की सिद्धि और उसकी प्रवृत्ति का प्रकारो का कथन करने के बाद ग्रंथकार सांख्यशास्त्र के द्वितीय नित्यतत्त्व 'पुरुष' की सत्ता का प्रतिपादन करते हुए आगे की कारिका बताते है।
सङ्घातपरार्थत्वात् त्रिगुणादिविपर्यादधिष्ठानात्। पुरुषोऽस्ति भोक्तृभावात्कैवल्यार्थं प्रवृत्तेश्च ॥१७॥
भावार्थ : पुरुष का (अस्तित्व सिद्ध हो सकता है ।) क्योंकि (१) संघात पाये हुए (जड) पदार्थे अन्य के उपयोग के लिए होते है। (२) सत्त्वादि तीन गुण इत्यादि धर्मो से वह विपरित धर्मवाला है। (३) अधिष्ठान रुप है। (४) (उसमें) भोक्तापन का भाव है। (५) कैवल्य के लिए प्रवृत्ति होती दिखाई देती है।
(१) सङ्घातपरार्थत्वात् : सङ्घातानां परार्थत्वात् - संघात यानी जिसमें अनेक विशेषो का सम्मिश्रण हुआ है वह। कोई एक वस्तु समजने का प्रयत्न करेंगे तो उसमें अनेक अन्यवस्तुओ का मिश्रण मिला हुआ दिखाई देगा।
अब संघात खुद अपने उपयोग के लिए नहीं है। वह समजा जा सकता है। लकडी, पाटी, स्क्रू, गद्दी इत्यादि वस्तुओ के मिश्रण से बना हुआ पलंग दूसरो के सोने के लिए होता है। अर्थात् पर-अर्थ है । हमने आगे देखा कि अव्यक्त प्रकृति प्रारंभ में तो तीन गुण की साम्यावस्था में ही होती है। और तब कुछ सर्जन नहीं होता है। परन्तु जब गुणो में क्षोभ होता है, तब उसमें से क्रमशः तेईस तत्त्व प्रकट होते है। उन सबको हम संघात कह सकेंगे। __ प्रकृति के द्वारा होता परिणमन, प्रकृति से भिन्न ऐसे पुरुष के लिए हुआ है। शयन-आसन इत्यादि के द्वारा जैसे उसके उपयोग करनेवाले अन्य व्यक्ति का अनुमान हो सकता है। उसी तरह से अव्यक्तादि संघात परार्थ अर्थात् पुरुष के लिए है । ऐसा भी अनुमान हो सकता है।
(२) त्रिगुणविपर्ययात् : आगे देखा वैसे अव्यक्त की साम्यावस्था में जो परिणमन होता है। उससे भिन्न ऐसे अन्य के लिए (पुरुष के लिए) होता है। तो यह अन्य तत्त्व उससे भिन्न यानी उसके गुणधर्मो से रहित भी होना जरुरी है। इसलिए पुरुष त्रिगुण से रहित है। इस प्रकार त्रिगुण से रहित ऐसे पुरुष का अस्तित्व सिद्ध होता है।
(३) अधिष्ठानात् : जैसे रथ इत्यादि को नियमन करनेवाला अधिष्ठाता होता है। उसी तरह से महदादि के अधिष्ठाता ऐसे पुरुष का भी स्वीकार करना ही पडेगा।
शंका : रथ का सारथि तो सक्रिय है। परन्तु पुरुष निर्गुण होने से निष्क्रिय है। इसलिए वह अधिष्ठाता किस
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