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षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, सांख्यदर्शन का विशेषार्थ
प्रत्येक कार्य का कोई कारण अवश्य होता है । व्यक्त यह कार्य है । इसलिए उसका भी कोई कारण होना चाहिए। और सांख्य के सत्कार्यवाद अनुसार से कारण के गुण कार्य में भी होने चाहिए । इसलिए कार्य के गुण देखकर वैसे सजातीयगुणवाले कारण का भी अनुमान किया जा सकता और इस अनुसार उपर के छ: लक्षण युक्त व्यक्त ऐसे कार्य के आधार से वैसे ही लक्षणोवाले अव्यक्त को भी सिद्ध किया जा सकता है। ___ परन्तु उपर की दलिल से कारण के गुण कार्य में होते है, उतना ही सिद्ध हो सकता है। इसलिए यदि अव्यक्त को व्यक्त का कारण माने, तो व्यक्त के कुछ धर्म अव्यक्त में है ऐसा सिद्ध हो सके। परन्तु व्यक्त का कारण अव्यक्त ही है, वह कैसे सिद्ध किया जा सकेगा ? व्यक्त का कारण व्यक्त क्यूं न हो सके ? जैसेकि, न्यायमत अनुसार से व्यक्त ऐसी स्थूलसृष्टि का कारण परमाणुओ को माना ही गया है, तो यहाँ भी वैसा क्यों न हो सके ? इसका उत्तर बाकी की दो कारिकायें देती है
भेदानां परिमाणात्समन्वयाच्छक्तितः प्रवृत्तेश्च । कारणकार्यविभागादविभागाद्वैश्वरुप्यस्य ॥१५॥ कारणमस्त्यव्यक्तं, प्रवर्तते त्रिगुणतः समुदयाश्च । परिणामतः सलिलवत् प्रतिप्रतिगुणाश्रय विशेषात् ॥१६॥
भावार्थ : अव्यक्त कारण है। क्योंकि (१) (महदादि) भेद परिमित है। (२) उसका समन्वय होता है। (३) (कारण की) शक्ति से (उसके अनुरुप कार्य की) प्रवृत्ति होती है । (४) कार्य और कारण के बीच विभाग होता है। और (५) (प्रलय के समय) विश्वरुप (ऐसे कार्य) का (उसके कारण ऐसे प्रधान में) लय होता है।
(और यह प्रधान) तीन गुणो के द्वारा उनके सम्मिश्रण से (अलग-अलग आश्रय लेने से अलग-अलग स्वाद को प्राप्त करनेवाले) जल की तरह प्रत्येक गुण का विशेष रुप से (मुख्य के रुप में) आश्रय लेने से (अलग-अलग) परिणाम पाकर प्रवृत्ति करता है।
इन कारिकाओ में मूलप्रकृति के अस्तित्व को अनुमान से सिद्ध किया गया है। व्यक्त ऐसे कार्य के कारणरुप से प्रकृति के अस्तित्व का स्वीकार नीचे की पाँच बातो से सिद्ध होता है।
(१) भेदानां परिमाणात् : महदादि भेद परिमित है । महद् से लेकर पंचमहाभूतो तक के सर्वतत्त्व कार्य है। वे प्रकृति के घटक है। मिट्टी में से घट इत्यादि अलग-अलग वस्तु बनी हुई देख सकते है । घट इत्यादि वस्तु सीमित भी है। घट निश्चित जगह ही रोकता है। वह सर्वत्र नहीं है । वह परिमित है। महद् इत्यादि भी इस तरह से परिमित है।
दूसरी तरह से देखे तो घट, कटोरा (शकोरा) इत्यादि मिट्टी की वस्तुएं स्वतन्त्र उत्पन्न नहीं हुई है। वह मिट्टी में से बनी है। वह मिट्टी का परिणाम है - उसका विकार है। इसलिए उसका कारण ढूंढते - ढूंढते हम उसके उपादान मिट्टी तक पहुचते है। उसी तरह से महद् इत्यादि का कारण ढूंढते - ढूंढते हम मूलप्रकृति तक पहुंचते है । वह किसीका विकार नहीं है। वह एक और भेदविहीन है। यदि वह भी भेदयुक्त हो तो उसके भेद अलग- अलग देखे जा सकते । और उसको भी विकार कहा जा सकता । परन्तु वैसे नहीं है। इसलिए वह इस सर्वविकारो का मूलकारण है। वह विकार नहीं है, वह उसके विकारो से अलग भी है और इस तरह से वह व्यक्त भी नहीं है अर्थात् अव्यक्त है।
(२) समन्वयात् - भिन्नानां समानरुपता समन्वय : सत्कार्यवाद के सिद्धांत अनुसार से कार्य और कारण में कुछ अंश से समानता भी देख सकते है। इसलिए कार्य से शुरु करके यह समानता ढूंढते – ढूंढते हम जैसे जैसे
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