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षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, सांख्यदर्शन का विशेषार्थ
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जो अर्थ में संकेत हो वही शब्द अर्थ का वाचक हो सकते है, ऐसा नियम है। यह अर्थ और शब्द के बीच वाच्य-वाचकसंबंध है। इस संबंध का ज्ञान संकेत से होता है। सर्ग के आरंभ में ईश्वर वेदादि की व्यवस्था के लिए "गो" आदि शब्द की शक्ति को 'गो' आदि अर्थ में ही नियमित करके स्थापना करते है। तथा प्रलय में जिनका ज्ञान चला गया है, वैसे पुरुषो को उस शक्ति का प्रकाश करते है। वैसे भी ईश्वर सर्वज्ञ और नित्य होने से पूर्वपूर्व सर्ग में जो जो शब्द जिस जिस अर्थ में थे वे वे शब्द उस उस अर्थ में नियमित करते है। इसलिए ईश्वर संकेत में भेद पडता नहीं है।
• सांख्यकारिका के आधार पे सांख्यमत में विशेष कहा जाता है। "दुःखत्रयाभिघाताज्जिज्ञासा तदुपघातके' हेतौ । दृष्टे साऽपार्था चेत् नैकान्तात्यन्ततोऽभावात् ॥१॥"
भावार्थ : (आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधि दैविक, ये) त्रिविध दुःख से दुःखी होने से उसके नाश के उपाय को जानने की इच्छा (-जिज्ञासा) होती है और उसके नाश के लिए लौकिक उपाय नहीं है। प्रत्येक धर्म की प्रवृत्ति दुःख के नाश के लिए ही होती है। वैसे यहां भी एकमेव दुःख का विनाश करने के लिए प्रकृति और पुरुष के भेद का ज्ञान करना है। वह शास्त्र के द्वारा किया जा सकता है। उसके लिए प्रकृति और पुरुष का ज्ञान होना चाहिए । और उसका संयोग किस तरह से हुआ, वह जानना पडेगा और उन दोनो का वियोग किस तरह से होता है वह भी जानना पडेगा। उसके बाद दुःख के आत्यंतिकनाश के लिए पुरुषार्थ होता है और विवेकख्याति प्राप्त करना वह परम पुरुषार्थ है । (कारिका-१)
तीन दुःख इस प्रकार है । (१) आध्यात्मिक : वह दुःख जिसका आन्तरिक तत्त्वो से सम्बन्ध है । जो दो प्रकार के है (क) शारिरीक (ख) मानसिक । (२) आधिभौतिक : बाह्यकारणो अथवा पदार्थो जिन्हें हम देख सकते है, उससे उत्पन्न होनेवाला दुःख आधिभौतिक कहलाता है। (३) आधिदैविक : प्रत्यक्ष दिखाई न देनेवाली देवयोनियों से होनेवाला कष्ट, आधिदैविक कहलाता है । दुःखत्रय के विस्तार को निम्नोक्त प्रकार से भी प्रदर्शित कर सकते है -
दुःखत्रय
आध्यात्मिक
आधिभौतिक
आधिदैविक
शारीरिक
मानसिक
मनुष्य, पशु, सर्प, मृगादि से
होनेवाला कष्ट
यक्ष, राक्षस, किन्नर, भूत, प्रेत आदि
से होनेवाला कष्ट
काम, क्रोध, लोभ मोह, ईर्ष्यादि उत्पन्न
नैसर्गिक त्रिदोषजन्य (भूखादि) (ज्वरादि)
दृष्टवदानुश्राविकः स ह्यविशुद्धिक्षयातिशययुक्तः । तद्विपरीतः श्रेयान् व्यक्ताव्यक्तज्ञविज्ञानात् ॥२॥ (आनुश्राविक) वेद में कहे गये उपाय भी लौकिक जैसे ही है। क्योंकि उपाय अशुद्धि, क्षय और अतिशय से युक्त है। उससे उल्टा (यानी कि शुद्ध,अक्षय और एकसमान उपाय) है वही श्रेय है, और वह है व्यक्त, अव्यक्त और ज्ञ (पुरुष) का विज्ञान । । कारिका - २ ॥
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