________________
२८२
षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, सांख्यदर्शन का विशेषार्थ
त्रिविधदुःख के प्रकारादि पहले बताये गये है। इसलिए यहाँ नहीं बताये है । गुरुमुख से श्रवण करके जिसको याद रखा जाता है वह वेद, यद्यपि वेद में वेदान्त का (उपनिषदोका) समावेश भी हो जाता है । परन्तु यहां तो वेद का कर्मकांड भाग ही अभिप्रेत है। वेद में अनेक प्रकार के यज्ञो का निरुपण किया गया है। यज्ञ याग से शाश्वत और संपूर्ण सुख मिल सके वैसा नहीं है। क्योंकि उसमें नीचे बताये हुए तीन प्रकार के दोष रहे हुए है।
(१) अशुद्धि : अर्थात् अशुद्धि । यज्ञ में पशुओ की हिंसा होती है और हिंसा दुःख ही देती है । श्री पंचशिखाचार्य कहते है कि यज्ञ के परिणाम से जो मुख्य फल मिलता है वह तो पुण्य ही है परन्तु उसमें हिंसा हुई है। इसलिए गौण फलरुप में थोडा पाप मिलता है। इस अल्पपापका उस पुण्य के साथ जो संसर्ग होता है वह थोडी अशुद्धि पैदा करता है और पाप का परिहार करने के लिए प्रायश्चित्त भी करना पडता है ।
(२) क्षय : स्वर्ग में शाश्वत सुख नहीं है। यज्ञ याग से स्वर्ग का सुख मिलेगा, परन्तु वह क्षय पानेवाला है।
(३) अतिशय : अलग अलग यज्ञ के फल अलग होते है। जैसे कि, ज्योतिष्टोम होम करने से स्वर्ग मिलता है। परन्तु वाजपेयादि यज्ञ करने से स्वर्ग का राज्य मिलता है। इस प्रकार की स्थिति को अतिशय कही है। और मानवी का स्वभाव तुलना करने का होता है। अपने से अन्य की स्थिति ज्यादा अच्छी है, वह विचार उसमें दुःख पैदा करता है।
इस तरह से अशुद्धि, क्षय और अतिशय से युक्त होने से वैदिक उपाय भी लौकिक उपाय की तरह ही शाश्वत और संपूर्ण दुःखमुक्ति देने में निष्फल ही सिद्ध होते है ।
त्रिविध दुःख की एकान्तिक - आत्यन्तिक निवृत्ति के लिए व्यक्त-अव्यक्त और पुरुष के विवेकज्ञान बताया, इन तीनो का सामान्य परिचय बताते हुए कहते है कि,
मूलप्रकृतिरविकृतिर्महादाद्या: 'प्रकृतिविकृतय: ' सप्त ।
षोडशकस्तु 'विकारो' न 'प्रकृति' र्न 'विकृतिः' पुरुषः ॥३॥
मूल प्रकृति अविकारी है। महत् इत्यादि सात (तत्त्व) प्रकृति भी है और विकृती भी है। सोलह तत्त्व तो केवल विकार ही है । पुरुष प्रकृति भी नहीं है, वैसे विकृति भी नहीं है । ( कारिका - ३)
इस कारिका में मुख्य तीन तत्त्वो के ज्ञान का सूचन किया गया है । अव्यक्त, व्यक्त और ज्ञ ।
उपर के पच्चीस तत्त्वो में सामान्य रुप से मूलप्रकृति को अव्यक्त कहा जाता है । महद् से लेकर पांच महाभूत तक के तेईस तत्त्वो को व्यक्त माना जाता है और अव्यक्त और व्यक्त से निराले (अनूठे ) पुरुष को " ज्ञ" के रूप से पहचाना जाता है।
इस जगत को हम संसार ऐसे नाम से पहचानते है और "संसरति इति संसारः " जो परिवर्तन पाता रहता है उसका ही नाम संसार है, ऐसा माना जाता है । परन्तु परिवर्तन तो एक प्रकार की गति है - अवस्था है । परिवर्तन किसका ? ऐसा सहज प्रश्न होता है । परिवर्तन किसीमें होता है और जिसमें परिवर्तन होता है उसमें से कुछ नयी स्थिति का निर्माण भी होता है। जैसे कि, मिट्टी में परिवर्तन होने से घडा बना । इस प्रकार मिट्टी, वह परिवर्तन का आधार बना। इस परिवर्तन के लिए मिट्टी अपने ही स्वरुप ऐसे घडे का कारण बनी ऐसा कहा जा सकता है। यह परिवर्तन कारण-कार्य की एक परंपरा का सर्जन करता है ।
परन्तु इस परंपरा की नोक से शरु करके कार्य-कारण की दिशा में आगे से आगे जायेंगे तो आखिर में एक बिन्दु आयेगा कि, जहाँ से आगे जाना संभव नहीं है और एक ऐसा कारण मालूम होगा कि जो अन्य किसी कारण के परिवर्तन का परिणाम नहीं होगा । सर्वप्रपंच का यही मूलकारण, जो किसीका भी विकार नहीं है ऐसा
For Personal & Private Use Only
www.jalnelibrary.org
Jain Education International