________________
षड्दर्शन समुचय भाग - १, सांख्यदर्शन का विशेषार्थ
२७९
निरतिशय है। यानी कि ईश्वर में निरतिशय अर्थात् उससे उत्कृष्ट नहि वैसा ज्ञान है।
यहाँ सूत्र में जो कहा है, कि सर्वज्ञता का ज्ञापक हेतु जो सातिशय जातीयज्ञान, वह ईश्वर में निरतिशय है। अर्थात् अमर्याद अवस्था को प्राप्त है। वहाँ सातिशय जातीयज्ञान सर्वज्ञता का इस अनुसार से ज्ञापन करता है। ज्ञान सातिशय होने से किसी स्थान पे भी निरतिशय होना चाहिए। क्योंकि लोक में हम देखते है कि जो जो गुण सातिशय होते है, जैसे कि, परिणाम, वे क्वचित् भी निरतिशय होते है । परिमाण का जो अणुत्त्व, महत्त्व रुप सातिशय देखते है। उसकी पुरुष में काष्ठा प्राप्ति है। क्योंकि पुरुष विभु होने से क्वचित् काष्ठा को पाना चाहिए। ज्ञान सातिशय है वह हम जानते है। बच्चे से बडे पुरुषो में ज्यादा होता है। उससे योगी में ज्यादा होता है और उससे उत्तम साधनावाले योगी को ज्यादा होता है। इस तरह से ज्ञान सातिशय सिद्ध होता है। इसलिए परिणाम की तरह क्वचित् निरतिशयवाला होना चाहिए । जहाँ ज्ञान निरतिशय होता है। वहाँ सर्वज्ञत्व है, यह स्पष्ट है। प्रश्न : यह सर्वज्ञपदार्थ वह बुद्ध इत्यादि होगे या महेश्वर, परम कारुणीक जगत के अधिष्ठाता इत्यादि संज्ञावाले ईश्वर होंगे? उत्तर : यह विशेषज्ञान अनुमान की शक्ति से बाहर होने से शास्त्रप्रमाण से होता है। लिंगपुराण में कहा है कि...
"लोके सातिशयित्वेन ज्ञानेश्वर्ये विलोकिते । शिवे नातिशयित्वेन स्थित आहुर्मनीषिणः ॥
अर्थात् 'लोक में ज्ञान और ऐश्वर्य जो अतिशयवाले दीखते है, वे परमात्मा के बारे में निरतिशय को पाये हुए है' । इत्यादि वचन से जगत के अधिष्ठाता महेश्वर में ज्ञान की निरतिशयता कही है। शंका : ईश्वर को जगत का अधिष्ठाता अर्थात् जगत को उत्पन्न करनेवाला माना है, वह योग्य नहीं है। क्योंकि शास्त्र में ईश्वर को आप्तकाम कहा है तथा भगवान होने से आरुढ वैराग्यवाले कहा है। इसलिए ईश्वर को कोई भी स्वार्थ नहीं होता है और स्वार्थ के बिना जगत की सृष्टिरुप क्रिया होती नहीं है। सांख्यसूत्र में "स्वोपकारादधिष्ठानं लोकवत्" इस सूत्र से यही अर्थ का बोधन किया है कि लोक में जो स्वार्थ के लिए प्रवृत्ति दिखाई देती है। वैसे जगतसर्जनरुप क्रिया का कर्ता ईश्वर को मानेंगे तो वह प्रवृत्ति स्वार्थ के लिए होनी चाहिए । वहां ईश्वर नित्य मुक्त होने से भोग नहीं है। शायद परार्थप्रवत्ति माने तो परमकारुणिक ईश्वर की यह प्रवत्ति इतरपुरुषोके सख के लिए होनी चाहिए। और ऐसा हो तो नानाविध दःखो से भरे हए इस जीवलोक की सष्टि ईश्वरकत होगी नहीं। उपरांत, या तो ईश्वर कर्म की अपेक्षा रखकर सृष्टि करे अथवा तो कर्म की अपेक्षा रखे बिना। वहां यदि कर्म की अपेक्षा के बिना सृष्टि करते है ऐसा मानेंगे तो ईश्वर में वैषम्यनैपुण्य दोषो की प्राप्ति आती है और कर्म की अपेक्षा रखकर सष्टि करते है ऐसा माने तो सष्टि के लिए कर्म और ईश्वर ऐसे दो कारण माननेरुप गौरव आता है। सांख्यसत्र में कहा है कि "न ईश्वराधिष्तिते फलसंपत्ति कर्मणा तत्सिद्धिः" इस सूत्र में उपर का अर्थ ही कहा है। उपरांत, लोक में जहाँ जहाँ प्रवत्ति होती है वहाँ वहाँ राग का सदभाव दिखाई देता है। इसलिए प्रवृत्ति और राग के बीच कार्यकारणभाव संबंध दिखता है। इसलिए यदि ईश्वर की जगतसृष्टिरुप प्रवृत्ति माने तो ईश्वर में राग मानना पडेगा। इससे ईश्वर क्लेश कर्मादि से रहित है यह सिद्धांत असत्य सिद्ध होगा । सांख्यसूत्रमें कहा है कि "न रागादृते जगत्सिद्धिः प्रतिनयतकारणत्वात्।" इस सूत्र में वही अर्थ कहा है। इसलिए सर्वथा ईश्वर जगतकर्ता नहीं है यह प्राप्त होता है। समाधान : ईश्वर के सद्भाव के लिए आगे श्रुतिप्रमाण दे चुके है। इसलिए "प्रमाणाभावात् न तत्सिद्धिः।" प्रमाणका अभाव होने से ईश्वर की सिद्धि नहीं है यह कहना अयोग्य है। उस ईश्वर की प्रवृत्ति नित्य होने से उसमें प्रयोजन की सही में देखते हुए जरुरत नहीं है।
जो प्रवृत्ति कादाचित्की होती है, वहाँ ही केवल 'प्रयोजनमनुद्दिश्य मन्दोऽपि न प्रवर्तते । बिना प्रयोजन मन्द
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org