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षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, सांख्यदर्शन का विशेषार्थ
: अविद्यादि क्लेश, धर्माधर्मरुप कर्म, जाति इत्यादिक क्लेशकर्म के फलरुप विपाक, तथा धर्माधर्म के संस्कार, ये सब के तीनो काल के विषय में वस्तुतः तथा उपचार से भी होनेवाला संसर्ग से रहित, स्वरुप से शुद्ध चितिशक्तिस्वरुप निरतिशय ऐश्वर्यवाले ईश्वर है।" ।
क्लेश : क्रियायोग से दूर होनेवाला क्लेश पाँच प्रकार के है। (१) अविद्या, (२) अस्मिता, (३) राग, (४) द्वेष, (५) अभिनिवेश । ये पाँच क्लेशो में अविद्या बाकी के चार की जननी है। ये सब क्लेशो की चार अवस्थाएं है। (१) प्रसुप्त : सोते हुए की तरह काम न करते, पडे हुए परन्तु जागता हो ऐसी होती है । (२) तनु : पतली, शिथिल होती है। (३) विच्छिन्न : त्रूटक-टक वर्तन करनेवाली होती है। (४) उदारपन से सोचनेवाली होती है। इन सबका विशेषस्वरुप अन्यग्रंथो से जान लेना।
ईश्वर यह सर्व का स्वरुपतः शुद्ध चितिशक्तिरुप है। फिर भी उसको एक चित्त होता है । वह चित्त शुद्धसत्वा माया के शुद्धांश से बना हुआ है। और इसलिए योगी के चित्त से विलक्षण है। योगी के चित्त प्रयत्न से शुद्धांशवाला बनता है। और ईश्वर का तो अनादिकाल से शुद्धांशवाला ही होता है। उस चित्त के योग से ईश्वर में ज्ञानशक्ति तथा क्रियाशक्ति होती है । उस चित्त के साथ ईश्वर को दूसरे जीवो की तरह अविद्यानिमित्तक स्व-स्वामिभाव संबंध नहीं है परन्तु जगतरुप प्रवाह में खींचे जाते पुरुष को ज्ञानादि उपदेश द्वारा उद्धार करने की इच्छारुप निमित्त से ईश्वर ने इस चित्त का ग्रहण किया है। __ ऐसा होने से, जैसे स्त्री इत्यादि वेश को वह रुप में जानकर ग्रहण करनेवाला शैलूष (नाटकका पात्र), इसलिए बंधन को प्राप्त नहीं करता है। वैसे उस चित्तरुप माया को मायारुप जान के अपनी इच्छा से ग्रहण करनेवाला ईश्वर भी उससे बंधन को प्राप्त नहीं करता है। ___ईश्वर अपनी इच्छा से एक चित्त का ग्रहण करते है, ऐसा कहने में इच्छा से अनन्तर चित्त का ग्रहण और चित्त के बिना इच्छा का अभाव होने से चित्त के ग्रहण की अनंतर इच्छाये होने पर भी अन्योन्याश्रयदोष नहीं आता है। क्योंकि सर्ग अनादि है। यदि सर्ग का आरंभ होता, तो इस प्रश्न का अवकाश रहता कि, ईश्वर ने प्रथम चित्त का ग्रहण किस तरह से किया ? परन्तु वैसा तो है नहीं । जगतप्रवाह-सर्गप्रवाह अनादि है। इसलिए एक सर्ग के संहार के समय यह प्रलय की अवधि आये, इसलिए सर्गान्तर की सृष्टि होने के समय मुजे कुछ खास शुद्धांशवाला चित्तसत्त्व ग्रहण करना है। ऐसा संकल्प करके ईश्वर सृष्टि का संहार करते है और संकल्प की वासनावाला होके चित्त भी उस समय प्रधान में प्रकृत्ति में लीन हो जाता है। उसके बाद प्रलयकाल समाप्त हो जाये, तब जैसे रात को सोया हुआ मानवी सबेरे जल्दी उठने के निश्चय के साथ सोये, तो उस निश्चय के बल से योग्य समय पे उठ जाता है। वैसे पूर्वसर्ग की अवधि पे किये हुए प्रणिधानरुप दृढसंकल्पयुक्त ईश्वर का चित्त उसी संकल्पवशात् इस सर्ग के प्रारंभ में ईश्वर को प्राप्त होता है और उसके बाद उस चित्त के द्वारा जगत की उत्पत्ति, ज्ञानादि का ब्रह्मा को उपदेश इत्यादि ईश्वर करते है । पुनः उस सर्ग की अवधि आने पर पूर्ववत् प्रणिधान (ध्यान) करते है। तथा उस प्रणिधानवशात् अनादिकाल से प्रणिधान और चित्त का ग्रहण किया होने से बीजांकुरवत् चलता ही रहता है। प्रश्न : ईश्वर को प्रकृष्टसत्त्ववाला चित्त है, इसमें क्या प्रमाण है ? उत्तर : तदैक्षत सोऽकामयत्, तदात्मानं स्वयमकुरुत।स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च, यः सर्वज्ञः सर्वविदः॥ ___ यह वेद की श्रुति से ईश्वर को प्रकृष्टचित्त है, वह सिद्ध हुआ। (सूत्र में एकवचन से वह व्यक्तिपरक है और वह व्यक्ति एक ही है, यानी कि ईश्वर एक ही है।) प्रश्न : ईश्वर का ज्ञान किस प्रकार का है ? उत्तर : तत्र निरतिशयं सर्वज्ञबीजम् ॥१-२५॥ अर्थात् सर्वज्ञपन का बीज जो अतिशयवाला ज्ञान, वह ईश्वर में
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