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षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, सांख्यदर्शन का विशेषार्थ
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पुरुषार्थ की सिद्धि इस अवस्था में होती नहीं है। इसलिए इस अवस्था का पुरुषार्थ निमित्त नहीं है और अन्यनिमित्त की तो प्राप्ति ही नहीं आती । यह अवस्था नित्य है और अन्य तीन पर्व अनित्य है। प्रश्न : अलिंग अवस्था में कोई निमित्त नहीं है, यह बात सच, तो भी सर्गकाल प्राप्त होता है, तब यह अवस्था मिट के महत् इत्यादि परिणाम होते है । अर्थात् सर्ग के समय इस अवस्थाके नाम भी रहता नहीं है तो फिर उसे नित्य कैसे कहा जाता है ? उत्तर : जब प्रलय होता है तब उस उस भाग के (सृष्टिके) अंत्यावयवी से महत् तक के सभी तत्त्व अपने अपने विशेषो को छोड़ देते है। यानी सम्पर्ण द्रव्य साम्यावस्था को प्राप्त करता है। अर्थात अलिंगरुप होके रहता है। पुनः जब सर्गकाल प्राप्त होता है, तब इस साम्यावस्थावाले द्रव्य में क्षोभ होता है। वह क्षोभ उस द्रव्यमात्र में नहीं होता परन्तु केवल एक देश में ही होता है यानी कि जैसे सभी दूध का दहीं बनता है वैसे अलिंग का एक देश में ही विकार उत्पन्न होता है और अन्यदेश तो साम्यावस्था के रुप में जैसे के तैसे स्थित होता है। यह अवशिष्ट (बाकी) रहा हुआ साम्यावस्थावाला द्रव्य पोषकद्रव्य के रुप में उस विकार के सर्वतः रहता है और इसलिए उसे आवरण भी कहा जाता है।
इसी अनुसार से महत् तत्त्व भी संपूर्ण अंश से अहंकाररुप परिणाम को पाता नहीं है। उसका एक देशमात्र उस रुप में परिणाम पाता है। बाकी रहा हुआ प्रदेश महत् तत्त्व रुप में ही रहता है। जो अहंकार के पोषकद्रव्यरुप में
आवरणरुप से रहता है। इसी तरह से अहंकार और तन्मात्रा तथा पाँच महाभूत ये सभी के लिए समजना। ___ इस तरह से पोषकद्रव्यरुप में रहे हुए आवरण कुल मिलाकर आठ है । (१) अलिंग, (२) महत्, (३)अहंकार, (४-८) पाँच तन्मात्रा । (इस आठ आवरणो में जो तन्मात्रावाला आवरण है। उसमें ही पांचभूतो में आवरणो का अन्तर्भाव किया है।)
इससे सिद्ध हुआ कि सर्गकाल में भी आवरणरुप में अलिंग की स्थिति होती है। इसलिए सर्गकाल में उस अलिंग केवल अभाव होता है, वह असत्य है अर्थात् ये अलिंग सत्त्वादि की स्वभावसिद्ध अवस्था होने से तथा सर्गकाल में भी अस्तित्व मे होने से नित्य है।
उपरांत यह अलिंग अवस्था को ये गुणो की तरह और पुरुष की तरह नित्य मानना संगत नहीं है। क्योंकि गुण प्रलय के समय और सर्ग के समय सदा सर्वदा विद्यमान होता है। वैसे ही पुरुष सदा सर्वदा एकरुप में रहता है। इसलिए गुणो और पुरुष जैसा नित्यत्व तो अलिंग में नहीं है । तथापि अलिंगपर्व भी सदा सत्तावाला होने से नित्य कहना अयोग्य नहीं है। प्रकृति के दूसरे नाम : • गुणत्रय सर्वजगत के कारणरुप होने से "प्रकृति" कहा जाता है। • सुख, दुःख और मोहधर्मवाला होने से "सुखदुःखमोहात्मक" कहा जाता है। • राजा के अमात्य की तरह पुरुष के सभी अर्थ को साधनेवाला होने से "प्रधान" कहा जाता है। • संपूर्ण कार्य उसके अंदर रहते है। इसलिए "प्रधान" कहा जाता है। • जगत को मोह करानेवाली होने से "माया" कहा जाता है। • परमाणु भी कहा जाता है। + सांख्यमत में जो सेश्वरवादि है, उनके ईश्वर का स्वरुप बताया जाता है। वह पातंजल योगदर्शन के आधार से बताया है।
"क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वरः ॥१-२४॥
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