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षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, सांख्यदर्शन का विशेषार्थ
अन्य कोई व्यापार नहीं है, ऐसा सत्त्वादि गुणो का कार्य । यह कार्य वह महत् तत्त्व है।
सर्ग के आरंभ में प्रकृति का क्षोभ होने से जो आद्यविकार सत्ता को प्राप्त करता है, वह कार्य ब्रह्म की उपाधिरुप तत्त्व, अविशेष और विशेष, ये सर्वपरिणामो का आधारभूत होने से महत् कहा जाता है। जब प्रलय होता है तब जगत की सभी वस्तुएं संस्कार सहित प्रधान में लीन होती है। सर्गकाल प्राप्त होने से प्रकृति, जो प्रलय के समय साम्यावस्था में होती है वह क्षोभ पाती है। यह क्षोभ पाने से जो प्रथम विकार अस्तित्व में आता है अर्थात् वह क्षोभ पाई हुई प्रकृति ही महत् है।
वह महत् लिंगमात्र है, क्योंकि वह प्रकृत्ति की क्षोभ पाई हुई अवस्थारुप होने से सारे जगत को अपने में अभिव्यक्त करती है। तथा उसमें दूसरा कोई व्यापार नहीं होता है। जब इस महत् तत्त्वमें से अहंकारादि उत्पन्न होते है। तब ही अभिव्यक्ति से अतिरिक्त व्यापार होता है। इसलिए महत् तत्त्वकी उत्पत्ति के समय अभिव्यक्ति से अन्य कोई व्यापार नहीं होता है। इसलिए योग्य तरीके से लिंगमात्र कहा जाता है। ___ वह महत् तत्त्व छ: अविशेषो का भी कारण है। अर्थात् वो ही तत्त्व स्थूलता को प्राप्त करने से छ: अविशेष रुप से परिणाम पाता है. इसमें इतना ही तफावत है कि, अहंकार यह महत तत्त्व का साक्षात परिणाम है और तन्मात्रा अविशेष, यह अहंकार द्वारा होनेवाला परिणाम है। इसलिए ये तत्त्व छ: अविशेष की तरह प्रकृतिविकृति तत्त्व है। (४) अलिंग : अलिंग यानी किसी का व्यंजन करनेवाला नहीं वह अर्थात् सत्त्वादिगुणो की साम्यावस्था।
इस साम्यावस्था को बहोत स्थान पे शास्त्रो में प्रकृति भी कही है। वैसे ही अव्यक्त, अव्याकृत इत्यादि भी उसके ही नाम है। क्योंकि साम्यावस्था दिखाई दे ऐसी नहीं है। यानी कि इस अवस्था में किसी की अभिव्यक्ति नहीं है। उपरांत नाम और रुप दोनो स्फुट नहीं है।
यह अलिंग या प्रकृति हमेशां के लिए एकसमान तरीके से रहती नहीं है, परन्तु सर्गकाल प्राप्त होने से वह अन्यरुप में परिणाम पाती है। इसलिए पहले के धर्म को छोडती है तथा अन्यधर्म का ग्रहण करती है। ऐसा होने से वह प्रकृति सत नहीं कही जाती। क्योंकि जो वस्त तीनो काल में एकसमान रुप से विद्यमान रहे वही सत है। वैसे ही यह प्रकृति शशशृंग की तरह असत् भी नहीं है। इसलिए असत् कहा जाये वैसा भी नहीं है। ऐसा होने से यह प्रकति (और उसके कार्यरुप संपर्ण जगत) सत-असत से अनिर्वचनीय कहा जाता है। आदित्यपराण में कहा है कि - "नासदरुपा न सदरुपा माया नैवोभयात्मिका सदसदभ्यामनिर्वाच्या।" यह प्रक मूल कारण है। तथापि वह भी गुणो की साम्यावस्था रुप होने से गुणो से अतिरिक्त रुप में तो गुण के धर्मरुप है और इसलिए उसको गुणो के पर्वरुप कहने में दोष नहीं है।
ये चारो को गुण के पर्व कहे, वहाँ यद्यपि ये चारो एकसमान रुप से सत्त्वादिगुणो में पर्वरुप है। तथा अलिंगपर्व और इतर (बाकीके) तीन पर्व में एक बडा भेद यह है कि अलिंगपर्व नित्य है और अन्य तीन पर्व अनित्य है।
अलिंगपर्व नित्य होने का कारण यह है कि उस पर्व में कोई निमित्त नहीं है। अर्थात् सत्त्वादि गुणो की वह स्वभावसिद्ध अवस्था है और महत इत्यादि पर्व निमित्तवशात होते है। वह निमित्त यह पुरुषार्थ की सिद्धि है। सुख, दुःखाभाव और विवेकख्याति, ये पुरुषार्थ है। ये पुरुषार्थ महत् इत्यादि का निमित्त है।
भोग और अपवर्गरुप पुरुषार्थ की सिद्धि सर्गकाल में ही होती है। प्रलयकाल में नहीं होती है। क्योंकि प्रलयकाल में तो भोग का जो करण अर्थात् बुद्धि तथा इन्द्रियां, वे इस प्रकृति में समाये है। इतना ही नहीं परन्तु जो अभिमानी का अणु, वह भी उस समय में नहीं है। इसलिए प्रलयकाल में सुख और विवेकख्याति की सिद्धि नहीं है। यह स्पष्ट है वैसे ही प्रलयकाल में जो दुःखाभाव होता है वह तो कर्मजन्यद्रव्य तथा अभिमानी इत्यादि द्रव्य के रुक्ष होने से हुआ है। इसलिए वह भी साम्यावस्था में निमित्तरुप नहीं है। तात्पर्य यह है कि किसी भी
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