________________
२६८
षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, सांख्यदर्शन का विशेषार्थ
कर सकते है। यानी कि एकगुण बाकी के दो से विशेष प्रमाण में प्रकट हो सकता है, यदि ऐसा होगा तो ही वैषम्य हुआ माना जायेगा और तो ही सर्गप्रक्रिया चल सकेगी। परंतु साथ में वे अन्योन्याश्रय, अन्योन्यजनन और अन्योन्यमिथुन वृत्तिवाले भी है। उपरी तौर से वे परस्परविरोधी लगते है। परन्तु उनका ध्येय एक ही है (पुरुषार्थ) और इसलिए वे साथ रहकर अपने अपने तरीके से कार्य कर सकता है। जैसे वात, पित और कफ तीनो शरीर में साथ रहकर कार्य करते है वैसे ।
ये तीनो गुण अनेक है। एक सत्त्वगुण, एक रजस्गुण और एक तमोगुण, ऐसा नहीं है वे अनेक है। इसलिए कार्य में एकसाथ वैविध्य संभवित हो सकता है। वे स्वयं कम-ज्यादा प्रमाण में अभिभूत होता है। परन्तु स्वरुप को छोडते नहीं है। कोई भी गुण दूसरे गुण में परिणमित नहीं होता है। सत्त्व हमेशां सत्त्व ही रहता है और वैसे बाकी के दो भी अपना अस्तित्व संभाल के रखते है और उसका नाश भी नहीं है और उसको उत्पन्न भी नहीं किया जा सकता। और जब साम्यावस्था प्राप्त करता है तब उसे प्रकृति कहा जाता है। • सत्कार्यवाद : स्थूल दिखते कार्य के कारण की तलाश करते करते सूक्ष्म और अव्यक्त कारण तक सांख्य दर्शन पहुंचते है। इस कारण की तलाश के पीछे दो मान्यता का स्वीकार रहा हुआ है।
(१) कार्य और कारण के बीच केवल अवस्थाभेद ही है। वास्तव में तो कार्य यह कारण का ही स्थूलरुप है। इस तरह से दोनो में तादात्म्य है और (२) कार्य यह नयी वस्त नहीं है। शन्यमें से कछ भी बनाया नहीं जा सकता। इतना ही नहीं परन्तु किसी भी वस्तु में से भी उससे बिलकुल भिन्न गुणधर्मवाली वस्तु भी उत्पन्न नहीं की जा सकती। जैसे कार्य की उत्पत्ति नहीं है. वैसे कार्य आकस्मिक भी नहीं है। कारण ही कार्यरुप में आविर्भाव पाता है। सांख्य की इस विचारधारा को सत्कार्यवाद माना जाता है । सत्कार्यवाद को सिद्ध करते हुए पाच कारण है। सांख्यकारिका-९ में कहा है कि.... असदकरणादुपादानग्रहणात् सर्वसम्भवाभावात् । शक्तस्य शक्यकरणात् कारणभावाच्च सत्कार्यम् ॥
अर्थात् कार्य सत् (सचमुच अस्तित्वमें) है, क्योंकि (१) असत् उत्पन्न हो नहीं सकता । (२) कारण के साथ (कार्यका) निश्चित प्रकार का संबंध होता है। (३) प्रत्येक कार्य प्रत्येक कारण में से उत्पन्न नहीं होता है। (४) जो उत्पन्न करने के लिए कारण समर्थ हो, उसको ही वह उत्पन्न कर सकेगा। (५) कार्य, कारण का ही स्वभाव धारण करता है।
सांख्यदर्शन अनुसार से कार्य हमेशां कारण में अप्रकटरुप से रहा हुआ ही होता है । वह बिलकुल नया ही उत्पन्न नहीं हुआ है । वह जब कारण में से प्रकट हुआ है, ऐसा लगता है। तब उसको कार्य ऐसा नाम दिया जाता है। इस प्रकार कार्य उसके कारण में पहले से ही सत था। इसलिए उसके इस सिद्धांत "सत्कार्यवाद" कहा जाता है। न्याय-वैशेषिको ने इससे अलग माना है। उनके मत अनुसार कार्य पहले था ही नहीं (असत्) परंतु पीछे से कारण में से उत्पन्न हुआ है। उनके इस सिद्धांत को असत्कार्यवाद कहा जाता है।
जब कि बौद्धो के मत अनुसार से असत् में से सत् उत्पन्न होता है। वेदान्तमतानुसार कारण ही सत् है'। कार्य तो केवल आभास है । कारण के विवर्त है। बौद्धो, वेदान्त, न्याय-वैशेषिक और सांख्यदर्शन के मत अनुक्रम में इस अनुसार से है :
"असतः सज्जायते इति, "एकस्य सतो विवर्तः कार्यजातं न वस्तु सत्" इत्यपरे । अन्ये तु "सतोऽसज्जायते इति" "सतः सज्जायते" इति वृद्धाः ।
कार्य और कारण दोनो सत् है। इतना ही नहीं परन्तु 'सत्' ऐसा कार्य "सत्" ऐसे कारण में रहा हुआ भी है। ऐसा निम्नोक्त पाँच कारणो से सिद्ध किया जाता है।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org