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षड्दर्शन समुच्चय भाग- १, सांख्यदर्शन का विशेषार्थ
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प्रकृति में यह गुण चंचल होता है, वह स्थिर नहीं रह सकता । इसलिए क्रिया तो आत्मा ही करेगा। इसलिए प्रकृति में परिणाम सतत चलता रहता है। इसलिए ही तो प्रकृति को स्वतः परिणामिनी कहा जाता है। साम्यावस्था में गुणो में वैषम्य नहीं होता है, इसलिए यह परिणाम वही का वही होता है। उसको सदृशपरिणाम कहा जाता है। वैषम्यावस्था में वह परिणाम भिन्न-भिन्न प्रकार का होता है। इसलिए उसको असदृश कहा जाता है। प्रकृति की साम्यावस्था में जो क्षोभ होता है वह पुरुष के विशिष्टसंयोग के कारण और पुरुष के लिए होता है। इसलिए प्रकृति में से महत्, अहंकार इत्यादिक जो सर्गो का उद्भव होता है, उसके लिए अन्यकारण की आवश्यकता रहती नहीं है । प्रकृति के ऐसे स्वरुप को, वह पुरुष से भिन्न है, ऐसा सच्चे तरीके से समजनेवाले के लिए प्रकृति की लीला शांत हो जाती है।
गुणविचार : प्रकृति का स्वरुप सत्त्वादि तीन की साम्यावस्था ही है, ऐसा हमने देखा। यानि कि ये तीन गुणो की कल्पना और उसका निरुपण यह सांख्यदर्शन का विशिष्ट प्रदान है । सर्वभौतिक और मानसिक तत्त्वो का चरमकारण (अंतिम कारण) ये तीन गुण ही है। चाहे वे गुण कहे जाये-परन्तु न्याय, वैशेषिको का गुणो के साथ उसका जरा भी सादृश्य नहीं है । विज्ञान भिक्षु के मत अनुसार ये सत्त्वादि गुण सूक्ष्मद्रव्य है, क्योंकि उनको गुण होते है। पुरुष के प्रयोजनो के लिए उनकी प्रवृत्ति होने से, उस संदर्भ में गौण होने से उसको गुण कहे गये है अथवा प्रकृति की रचना में वे सूत्र ( = गुण = धागे ) के रुप में रहे हुए है। इसलिए वह गुण है अथवा पुरुषो को सांसारिकता में बांध के रखते है, इसलिए भी उनको गुण कहा जाता है। वे गुण विकारो के द्वारा अनुमान से सिद्ध किये जाते है। वे इन्द्रियगम्य नहीं है। गुणो का क्षेत्र व्यापक है। इसलिए केवल भौतिकरचना के लिए अथवा तो केवल मानसिक अवस्था के द्योतक के रुप में ही उसका निरुपण करना अपूर्ण रहेगा। उसका व्याप दोनो क्षेत्र में है।
सृष्टि वास्तविक है। केवल शून्य या आभास नहीं है। उसके रुप पल पल में प्रकट होते है और इसलिए प्रत्येक पदार्थ अपनी वस्तु लक्षित द्रष्टा के अनुभव में लाता है। उसमें रहा हुआ निश्चित जत्था वह अपनी सीमाओमें बंधकर स्थूल रुपमें दिखता है। तब उसको तात्त्विक कहा जाता है। परन्तु अनुभव उसको बताते है कि यह स्थूलता स्थिर नहीं है। समय और संजोग उसमें धीरे से या जल्दी से परिवर्तन लाया करते है। यह परिवर्तन वह रजोगुण है। यह स्थूल जत्था और परिवर्तन वस्तु के अस्तित्व के संदर्भ में है। इसलिए उन दोनों के पीछे वस्तु की सत्ता का भी स्वीकार करना पडेगा। और उसका नाम है सत्त्वगुण। __उपरांत किसी ने कहा है कि, तमस्, रजस् और सत्त्वगुणो को इसी संदर्भ में ही अनुक्रम में परिमिति, गति और व्यवस्थित कहे है। सत्त्व को लघु और प्रकाशक, रजस् को उपष्टम्भक और चल तथा तमस् को गुरूवरण, क्यों कहा है वह इससे स्पष्ट होता है।
परन्तु गुणो का साम्राज्य यहाँ ही समाप्त नहीं होता । मनमें उठते विचार या वृत्ति भी त्रिगुण की आवृत्ति है। भौतिकसृष्टि और मानसिकसृष्टि ये दोनो, इस तीन गुण के विविध तारतम्य भरे क्रमचय या उपचय के कारण ही संभव बनती है। भौतिकसृष्टि के कोई भी पदार्थ ये तीन गुणो का बना हुआ है। इसलिए वह तीन प्रकार की वृत्ति उत्पन्न कर सकता है। सुखकी, दुःखकी और मोहकी । एक सुन्दर स्त्री प्रियतम के मन में सुखकी, सपत्नी के मन में दुःखकी और अन्य किसी निष्फल प्रेमी के मन में मोहकी वृत्ति उत्पन्न कर सकती है। इसलिए ही सत्त्व, रजस् और तमस् को क्रमशः प्रीति, अप्रीति और विषादात्मक कहा है।
ये तीन गुण आंतरिक जगत और बाह्य जगत की संवादिता का सर्जन करते है। वे साथ ही होते है। उनका स्वत्व वे संभालते है । परन्तु कोई भी गुण बिलकुल अकेला ही रहता नहीं है । वे एकदूसरे का अभिभव
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