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षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, सांख्यदर्शन का विशेषार्थ
सांख्य विचारधारा की इतनी पश्चादभू देखने के बाद हम सांख्यकारिका के आधार पर उसके मुख्य तत्त्वो को संक्षेप में देखे । उन तत्त्वो का विचार नीचे के चार प्रकार से कर सकते है।
(१) ऐसा तत्त्व कि जो अनादि हो, जिसका कारण न हो, किन्तु स्वयं अन्य का कारण हो -- यह तत्त्व यानी प्रकृति-मूलप्रकृति-अव्यक्त या प्रधान ।
(२) ऐसे तत्त्व, कि जो किसी का कार्य हो और साथ साथ अन्य तत्त्वो का कारण भी हो, इन तत्त्वो को प्रकृतिविकृति कहा गया है। वे सात है - महत्, अहंकार और पाच तन्मात्रा।
(३) ऐसे तत्त्व, कि जो किसीका केवल कार्य ही हो । अन्य किसी का कारण न हो । इन तत्त्वो को केवल विकार कहा जाता है। उसकी संख्या १६ है - मन के साथ ग्यारह इन्द्रियाँ और पाँच महाभूत ।
(४) ऐसा तत्त्व, कि जो किसी का कारण (प्रकृति) भी न हो, और कार्य (विकृति) भी न हो । अर्थात् जो अनादि और अविकारि हो, यह तत्त्व चैतन्य पुरुष है।
प्रकृति : विश्व में हम विविध पदार्थो को देखते है। उनके परस्पर के भेद भी देखते है। परन्तु जब वह किस तरह से बने, उसका उत्तरोत्तर क्रम में विचार करते है अर्थात् जब कार्य में से कारण की ओर आगे आगे जाते है तब भेद विलीन हो जाते है। जैसे कि, विविध प्रकार के घडे, तवे इत्यादि के कारण का विचार करे तो ये सब मिट्टी तक पहुँचते हुए पिगल जाते है। और अंत में अदृश्य हो जाते है। एक सूक्ष्म स्थिति प्राप्त होती है। उससे आगे बढा नहि जा सकता । उसको व्यक्तदशा में प्राप्त भी नहीं किया जा सकता । वह मूलतत्त्व, यही अव्यक्त प्रकृति है। इस अव्यक्त का स्वीकार किये बिना चलेगा ही नहीं। ___ इस तरह से प्रकृति सर्व का अहेतुमत् कारण है। इसलिए वह सर्वव्यापी और अनंत है। उपरांत, वह नित्य, निष्क्रिय, एक, अनाश्रित, अलिंग, निरवयव, स्वतंत्र, त्रिगुण, विषय, सामान्य, अचेतन और सर्वधर्मि भी है। प्रकृति के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए निम्नोक्त दलीले दी जाती है।
(१) जगत के सभी पदार्थ परिमित है, इसलिए उसका कोई कारण होगा। (२) भिन्न-भिन्न लगते तत्त्वो को एक सूत्र में बांधनेवाला, एक समन्वय करनेवाला तत्त्व भी होना चाहिए । (३) शेषतत्त्वो में होता हुआ परिणमन का आधार, उसके मूलस्रोत की शक्ति ही होनी चाहिए। (४) कार्य-कारण संबंध के आधार से भी आखिर में मूलकारण तक पहुँचना चाहिए । उपरांत, (५) कार्य अंततोगत्वा अपने मूल कारण में ही लीन होगा।
प्रकृति के विकार अनेक है। परन्तु प्रकृति एक है। अव्यक्त प्रकृति में से प्रकट हुई व्यक्तसृष्टि प्रकृति के साथ कुछ बातो में समान होने पर भी बहोत प्रकार से उससे अलग भी पडती है। यह समग्रसृष्टि का आधारस्तंभ प्रकृति ही है। कोई चैतन्य जड में परिणमित नहीं होता।
यह प्रकृति आदि कारण होने से मूलविकृति - सूक्ष्म होने से अव्यक्त और सर्वकार्यो का आधार होने से प्रधान कही जाती है। जैसे वह व्यक्ति से भिन्न है, वैसे पुरुष से भी भिन्न है। पुरुष चेतन है। प्रकृति अचेतन है।वह दृश्य है, तो पुरुष द्रष्टा है। वह सगुण है, तो पुरुष निर्गुण है। पुरुष के भोग और अपवर्ग के लिए ही वह कार्य करती है।
स्वरुप की दृष्टि से प्रकृति यह सत्त्व, रजस् और तमस्, ये तीन गुणो की साम्यावस्था ही है। ये तीन गुणो के वैषम्य के कारण प्रकृति में से सृष्टि-सर्जन होता है। यह सर्जन प्रकृतिसदृश या असदृश होता है । (तच्च कार्य प्रकृतिविरुपं प्रकृतेरसदृशम् ।) (गौ.का.८)
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