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षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, सांख्यदर्शन का विशेषार्थ
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पंडितो ने ईश्वर का अनंगीकार किया है। (स्वीकार नहीं किया है।) परन्तु वह उनका मन्तव्य है। महर्षि कपिलका नहीं है।
विवेकज्ञान प्राप्त करके प्रकृति के सर्वविकारो से मुक्त होना यह जीवात्मा की मुक्ति । रजोगुण का परिणाम ही दुःख है और उसका आघात जीवात्मा को होता है। उस आघात का अत्यंत नाश भी हो सकता है और उसका उपाय विवेकज्ञान से अतिरिक्त (दूसरा कोई) नहीं है। "ऋते ज्ञानान्न मुक्तिः ।" और वह ज्ञान इस शास्त्र में बताये हुए उपायो से मिल सकता है। इसलिए शास्त्र सप्रयोजन है।
सांख्य शब्द का अर्थ : पृथक्करण प्रक्रिया में कुछ लोग (सामान्यतः २५) तत्त्वो की गिनती करते है। इसलिए इस दर्शन का नाम सांख्य (संख्या पर से) पडा ऐसा कछ लोगो का मानना है। उसके समर्थन में महाभारत का
लोक भी दिया जाता है। "संख्या प्रकर्वते चैव प्रकतिं च प्रचक्षते । तत्त्वानि च चतविंशति तेन सांख्या: प्रकीर्तिता।" परन्तु संख्यागिनती इतना ही अर्थ फलित नहीं होता है। परन्तु दूसरा अर्थ 'विचारणा' ऐसा भी होता है। तत्त्वो का पूर्ण विचार करनेवाले दर्शन को सांख्यदर्शन कहा जाता है।
इसके उपरांत कोई वस्तु के विषय में तद्गतदोषो तथा गुणो का विभागीकरण करना उसको भी संख्या कहा जाता है । जैसे कि "दोषाणां च गुणानां च प्रमाणं प्रविभागतः । कश्चिदर्थमभिप्रेत्य सा संख्येत्युपधार्यताम्।" (महाभारत)
परन्तु विशेषतः सांख्य शब्द आत्मज्ञान के अर्थ में भी इस्तेमाल हुआ दिखाई देता है। भगवद्गीता में इस अर्थ में एक से ज्यादा बार सांख्य शब्द का प्रयोग हुआ ही है। सांख्यदर्शन का हार्द पुरुष-प्रकृति-विवेक में रहा हुआ है। इसलिए संख्या शब्द सम् + ख्या धातु में से बना हुआ है और उसका अर्थ सम्यख्याति = सम्यक्ज्ञान करना ज्यादा उचित है।
• तत्त्वविचार : व्यापक अर्थ में सोचे तो प्रथम परीक्षण से ऐसा लगता है कि समस्त विश्व में मुख्यतः दो तत्त्व अस्तित्व में है। एक जड और दूसरा चेतन । विशेष परीक्षण करने से ये दोनो तत्त्व एक दूसरे से निरपेक्ष है या आश्रित है अथवा तो दोनो में से कोई भी एक ही मूलतत्त्व है और दूसरा तो केवल उसका रुपांतर है। ऐसे प्रश्न भी खडे होंगे। दार्शनिको के मन में ऐसे विचार बारबार आया करते है। और उन्हों ने अपने अपने तरीके से उसका हल ढूंढने के प्रयत्न भी किये है। इन प्रयत्नो का निष्कर्ष नीचे बताये अनुसार हो सकता ।
(१) जड यही पारमार्थिक तत्त्व है। यह विश्व वैसे भूतो का ही बना हुआ है। उनके मत में भूत में से चैतन्य नाम का गुण पैदा होता है। चैतन्य स्वतंत्र मानने की आवश्यकता नहीं है। यह मत भूतचैतन्यवादि चार्वाकोका माना जाता है। ___ (२) यह जो कुछ है वह चैतन्य के सिवा दूसरा कुछ भी नहीं है। चैतन्य में जडत्व संभवित नहीं है। इसलिए जिसको हम जड मानते है वह सही में (वास्तवमें) जड नहीं है। परन्तु चैतन्य का स्वरुप है अथवा तो उस चैतन्य से भिन्न है, ऐसा आभास मात्र ही है। यह विचारधारा केवलचैतन्यवादि अर्थात् अद्वैतवेदान्ती की है। ___ (३) जड और चैतन्य ये दो नितान्त भिन्न तत्त्व है। इसलिए एक के गुणधर्म दूसरे में कभी भी संभवित नहीं हो सकते । इसलिए दो में से किसी भी एक को ही सच्चा तत्त्व मान सकते नहीं है । दोनो का संयोग हो सकेगा, परन्तु सम्मिश्रण नहीं । यह मत - द्वैतवादि विचारधारा का और उसमें विशेषतः सांख्य का है।
(४) चाहे जड और चैतन्य दोनो रहे, परन्तु दोनो स्वतंत्र नहीं है। उन दोनो पर भी एक नियामक तत्त्व है। वह तत्त्व यानी ईश्वर । यह विचारधारा ईश्वरवादी की है।
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